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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८ त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थंकर नाम और उच्चगोत्र इन दस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होती है और उदय अयोगि गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है। १४-अयोगिकेवलिगुणस्थान में योग का अभाव होने से किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती है । इस प्रकार से गुणस्थानों में उत्तरप्रकृतियों की उदीरणाविधि जानना चाहिये । लेकिन जिन कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजना से होती है, अब उनका निर्देश करते हैं। भजनीय उदीरणा-योग्य प्रकृतियां निदाउयदवईणं समिच्छपुरिसाण एगचत्ताणं । एयाणं चिय भज्जा उदीरणा उदए नन्नासिं ॥८॥ शब्दार्थ--निद्दा--निद्रापं वक, उदयवईणं- उदयवती संज्ञावाली, समिच्छपुरिसाण-मिथ्यात्वमोहनीय और पुरुषवेद सहित, एगचत्ताणं-इकतालीस, १ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थानों में उदीरणायोग्य प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार बतलाई है(क) पण णव इगिसत्तरसं अट्ठट्ठ य चउरछक्क छच्चेव । इगि दुय सोलगुदालं उदीरणा होति जोगता ।। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त क्रम से पांच, नौ, एक, सत्रह, आठ, आठ, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह और उनतालीस प्रकृतियों की उदीरणा होती है । -पंचसंग्रह कर्मस्तव गा० ४८ (ख) गो. कर्मकांड गा. २८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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