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पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ६
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होगा । साथ ही आयु के रहते मरण होता है तो आयुकर्म की निष्फलता भी सिद्ध होती है ।
उत्तर - आयुकर्म के लिए उक्त कृतनाश आदि दोषत्रय सम्भव नहीं है । ऐसी दोषापत्ति करना व्यर्थ है । क्योंकि जब विष, शस्त्रादि उपक्रमों का संयोग मिलता है तब उस भवस्थ जीव का समस्त आयुकर्म एक साथ उदय में आ जाने से शीघ्र भोग लिया जाता है । जिससे बद्ध आयुकर्म का फल दिये बिना नाश नहीं होता है और समस्त आयुकर्म का क्षय होने के पश्चात् ही मरण होता है । जिससे अकृत (अनिमित्त) मरण की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिए अकृताभ्यागम दोष भी सम्भव नही तथा आयुकर्म का शीघ्रता से उपभोग होने और समस्त आयु भोगने के पश्चात् ही मरण होने से वह निष्फल भी नहीं है । जैसे सभी चारों ओर से दृढ़ता से बांधी गई घास की गंजी को एक बाजू से सिलगाने पर वह धीरे-धीरे जलेगी, परन्तु उसका बंधन तोड़कर अलग-अलग बिखेर दिया जाये और चारों ओर से हवा चलती हो तो वह चारों ओर से सिलग पड़ती है और जल कर भस्म हो जाती है। इसी प्रकार बंध के समय शिथिल बांधी आयु उपकम का संयोग मिलने पर एक साथ उदय में आती है और एक साथ भोग कर लेने के द्वारा क्षय हो जाती है ।
औपपातिक जन्म वालों (देव, नारक ) असंख्य वर्षायुष्क (भोगभूमिज मनुष्य तियंच), चरमगरीरी ( उसी वर्तमान भव के शरीर में रहते मोक्ष प्राप्त करने वाले) और उत्तम पुरुष (तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि) की अनपवर्तनीय आयु ही होती है । शेष जीव अपवर्तनीय, अनपवर्तनीय दोनों प्रकार की आयु वाले हैं ।
देव, नारक तथा असंख्य वर्ष की आयु वाले तिर्यंच, मनुष्य अपनी भुज्यमान आयु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु का बंध करते हैं और सोपक्रम अपवर्तनीय आयु वाले अपनी-अपनी आयु के तीसरे, नौवें या सत्ताईसवें इस प्रकार से त्रिगुण करते करते आयुबंध कर लेते हैं और यदि उन त्रिगुणों में से भी किसी समय आयु का बंध न हो तो अन्त में भुज्यमान आयु का अन्तर्मुहूर्त शेष रहते अवश्य ही परभव की आयु बांधते हैं । क्योंकि परभव की आयु बंध हुए बिना मरण नहीं होता है ।
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