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________________ ४६८ पंचसंग्रह : ५ एक स्पर्धक होता है। जिससे उस एक स्पर्धक से अधिक अयोगिगुणस्थान के समयप्रमाण उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं । 'इयराणं एगहीणं तं' अर्थात् इतर-अयोगिकेवलीगुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है, उन अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों से एक न्यून स्पर्धक होता है । इसका कारण यह है कि अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में उन अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता प्राप्त नहीं होती है, जिससे वे चरम स्थितिसम्बन्धी स्पर्धक से हीन हैं। इस प्रकार से अयोगिकेवलीगुणस्थान में क्षय होने वाली उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाने के बाद पूर्व में जो क्षीणमोहगुणस्थान में जिनका अंत होता है एवं अयोगिकेवलीगुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है, उन उदयवती प्रकृतियों के यथोक्त प्रमाण युक्त जो स्पर्धक एक स्पर्धक से अधिक तथा अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक उदयवती प्रकृतियों से एक न्यून कहे हैं, अब कारण सहित दो गाथाओं में उसका विचार करते हैंठिइखंडाणइखुड्डं खीणसजोगीण होइ जं चरिमं । तं उदयवईणहियं अन्नगए तूणमियराणं ॥१७७।। जं समयं उदयवई खिज्जइ दुच्चरिमयं तु ठिइठाणं । अणुदयवइए तम्मी चरिमं चरिमंमि जं कमइ ॥१७॥ शब्दार्थ-ठिइखंडाण इखुड्डं-स्थितिखंडों का अत्यन्त क्ष ल्लक, सबसे छोटा अंश, खोणसजोगीण-क्षीणमोह और सयोगिकेवलीगुणस्थान में, होइ-होता है, जं-जो, चरिम-चरम, तं-वह, उदयवईणहियं-उदयवती प्रकृतियों का अधिक, अन्यगए-~अन्यगत, उदयवतीप्रकृतियोंगत, तूणमियराणंऔर इतरों का, अनुदयवतीप्रकृतियों का न्यून । ज-जिस, समय-समय, उदयवई-उदयवती प्रकृतियों का, खिज्जइक्षय होता है, दुच्चरिमयं-द्विचरम, तु-और, ठिठाणं-स्थितिस्थान का, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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