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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७६ ४६७ विशेषार्थ --गाथा में अयोगिकेवलीगुणस्थानवर्ती उदयवती और अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाया है। पहले उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाते हैं अयोगिकेवलीगुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है ऐसी मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, बादर, तीर्थकर, यशःकोति, साता-असातावेदनीय में से एक वेदनीय और उच्चगोत्र रूप बारह उदयवती प्रकृतियों का स्पर्धकोत्कर्ष-कुल स्पर्धकों की संख्याअयोगिकेवलीगुणस्थान के काल के तुल्य है, किन्तु एक स्पर्धक से अधिक जानना चाहिये । यानि अयोगिकेवलीगुणस्थान के काल के जितने समय हैं, उनसे एक स्पर्धक अधिक स्पर्धक होते हैं। जिसका विशद् अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये क्षपितकर्माश किसी जीव के अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्ता होती है, वह प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थान है, एक परमाणु को मिलाने पर दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो परमाणुओं को मिलाने पर तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, इस प्रकार अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में वर्तमान अनेक जीवों की अपेक्षा एक-एक परमाणु को मिलाते हुए निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक जानना चाहिये कि उसी समय में वर्तमान गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो । इस प्रकार चरम स्थितिसम्बन्धी एक स्पर्धक होता है। इसी प्रकार दो स्थिति शेष रहे तब उस दो स्थिति का दूसरा स्पर्धक होता है, तीन स्थिति शेष रहे तब तीन स्थिति का तीसरा स्पर्धक होता है। __ इस तरह निरन्तर अयोगिगुणस्थान के पहले समय पर्यन्त समझना चाहिये तथा सयोगिकेवली के चरम समय में होने वाले चरम स्थितिबात के चरम प्रक्षेप से आरम्भ कर पश्चानुपूर्वी के क्रम से बढ़ते हुए नरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान वहाँ तक कहना चाहिये यावत् अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। इस सम्पूर्ण स्थितिसम्बन्धी यथासंभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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