SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ पंचसंग्रह : ५. इस प्रकार सर्वापवर्तना द्वारा क्षीणकषायगुणस्थान के काल के समान की गई सत्तागत स्थिति के जितने स्थितिविशेष-समय होते हैं उतने स्पर्धक जानना चाहिये तथा चरम स्थितिघात के चरमप्रक्षेप से आरम्भ कर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से वृद्धि करते हुए वहाँ तक कहना चाहिये यावर अपनी-अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता हो, इस सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्धक होता है। यह एक स्पर्धक अधिक होने से ज्ञानावरणपंचक आदि उदयवती प्रकृतियों के एक स्पर्धक से अधिक क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग के चरम समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं तथा निद्रा और प्रचला की क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में सत्ता नहीं होने से द्विचरम स्थिति-आश्रित स्पर्धक होते हैं। जिससे उस चरम स्थिति सम्बन्धी स्पर्धक से हीन उन दोनों के स्पर्धक होते हैं। अर्था उन दोनों के कुल स्पर्धक क्षीणकषायगूणस्थान के संख्यातवें भाग के समयप्रमाण ही होते हैं। इस प्रकार से अनुदयवती और क्षीणकषायगुणस्थान में उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाने के बाद अब अयोगिकेवलीगुणस्थान में अंत होने वाली प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाते हैं -- अज्जोगिसंतिगाणं उदयवईणं तु तस्स कालेणं । एगाहिगेण तुल्लं इयराणं एगहीणं तं ॥१७६॥ शब्दार्थ-अज्जोगिसंतिगाणं-अयोगिगुणस्थान में सत्ता वाली प्रकृतियों का, उदयवईणं-उदयवती, तु-और, तस्स-उसके, कालेणं-काल से, एगाहिगेण-एक अधिक. तुल्लं-तुल्य, इयराणं-इतर-अनुदयवतो प्रकृतियों का, एगहीणं-एक हीन तं-वह (स्पर्धक) । गाथार्थ-अयोगिगुणस्थान में सत्ता वाली उदयवती प्रकृतियों के एक स्पर्धक से अधिक उसके अयोगिगुणस्थान के) काल के तुल्य स्पर्धक होते हैं और इतर अनुदयवती प्रकृतियों का एक स्पर्धक न्यून होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy