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________________ ३८९ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६, १३० संजोयणा विजोजिय जहन्नदेवत्तमंतिममुहत्ते । बंधिय उक्कोस्सठिइं गंतूणेगिदियासन्नी ॥१२६।। सव्वलहु नरयगए नरयगई तम्मि सव्वपज्जत्ते । अणुपुव्विसगइतुल्ला ता पुण नेया भवाइम्मि ॥१३०॥ ___ शब्दार्थ-संजोयगा-संयोजना, अनन्तानुबंधि की, विजोजिय–विसंयोजना करके, बहन्नदेवत-जघन्य आयु वाला देवपना, अन्तिममुहत्त-अन्तिममुहूर्त में, बंधिय-बांधकर, उक्कोस्सठिइं-उत्कृष्ट स्थिति को, गंतूणजाकर, एगिदियासन्नी-एकेन्द्रिय से असंज्ञी में । ___ सव्वलहु-शीघ्र, नरयगए-नरक में जाकर, नरयगई-नरकगति, तम्मि-उस में, सम्बपज्जत-सम्पूर्ण पर्याप्तियों से पर्याप्त, अणपुन्वि-आनुपूर्वी का, सगइतुल्ला-अपनी-अपनी गति के तुल्य, ता-वह, पुण–पुनः, नेवा-जानना चाहिए, भवाइम्मि-भव के आदि समय में । गाथार्थ-संयोजना (अनन्तानुबंधि) की विसंयोजना करके जघन्य आयु वाला देवपना प्राप्त कर उसके अन्तिम मुहूर्त में एकेन्द्रिय के योग्य उत्कृष्ट स्थिति बांध कर और उस एकेन्द्रिय से असंज्ञी में जाकर वहाँ से शीघ्र नरक में उत्पन्न हो तब सम्पूर्ण पर्याप्तियों से पर्याप्त उस नारक के नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है तथा चारों आनुपूवियों का जघन्य प्रदेशोदय अपनी-अपनी गति के तुल्य है किन्तु अपने-अपने भव के पहले समय में समझना चाहिए। विशेषार्थ-कोई जीव अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के १ यहाँ अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करना कहने का कारण यह है कि उसकी विसंयोजना करने पर शेष समस्त कर्मों के भी अधिक परिमाण में पुद्गल क्षय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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