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पंचसंग्रह : ५
अप्पद्धाजोगसमज्जियाण आऊण जिट्ठठिइअंते । उरि थोवनिसेगे चिर तिव्वासायवेईणं ॥१२८।।
शब्दार्थ-अप्पद्धाजोगसमज्जियाण-अल्प अद्धा (बंधकाल) और योग से अजित-बद्ध, आऊण-चारों आयु की, जिठठिईअंते-उत्कृष्ट स्थिति के अंत में, उरि-उपर, थोवनिसेगे-स्तोक निषक वाले, चिर-अधिक समय, तिव्वासायवेईणं-तीन असाता का वेदन करने वाले के।
गाथार्थ- अल्प काल और योग द्वारा बद्ध चारों आयु की उत्कृष्ट स्थिति के अंत में स्तोक निषेक वाले ऊार के स्थान में वर्तमान अधिक समय तक तीव्र असाता का वेदन करने वाले के चारों आयु का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ-अल्पातिअल्प जितने समय और योग द्वारा आयु का उत्कृष्ट स्थितिबंध हो सकता है, उतने काल और योग द्वारा बद्ध उत्कृष्ट स्थिति वाली चारों आयु की जिस स्थान में कम से कम दलरचना हुई है उस चरम स्थान में वर्तमान सुदीर्घकाल तक तीव्र असातावेदनीय के द्वारा विह्वल हुए क्षपितकर्मांश जीव के जिस आयु का उदय हो, उसका जघन्य प्रदेशोदय होता है।।
अल्प काल द्वारा बहुत बार आयु का बंध और अल्प योग द्वारा अधिक दलिक का ग्रहण नहीं हो सकने के कारण यहाँ अल्प काल और अल्प योग का और तीव्र असातावेदनीय द्वारा विहवल हुए जीवों के आयु के अधिक प्रमाण में पुद्गलों का क्षय होने से यहाँ तीव्र असाता का वेदन करने वाले जीव का ग्रहण किया है तथा अंतिम स्थान में निषेकरचना अत्यल्प प्रमाण होती है और उदय, उदीरणा द्वारा अधिक दलिकों का क्षय होता है, जिससे चरम स्थान में बहुत ही कम दलिक शेष रहते हैं । इसीलिये जघन्य प्रदेशोदय के लिये चरम स्थान का ग्रहण किया है। तथा
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