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पंचसंग्रह : ५
बाद जघन्य आयु वाला देवत्व प्राप्त करे और वहाँ अन्तिम मुहूर्त में मिथ्यात्व में जाकर एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति बांध कर सक्लिष्ट परिणाम वाले एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ मात्र अन्तमुहूर्त रहकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो और उस असंज्ञी भव में अन्य असंज्ञी जीवों की अपेक्षा शीघ्र मरकर नरक में उत्पन्न हो और वहाँ शीघ्र समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त हो तो उस समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त नारक के नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है।
इसका कारण यह है कि पर्याप्त जीव के बहुत-सी प्रकृतियों का विपाकोदय होता है और विपाकोदय प्राप्त प्रकृतियां स्तिबुकसंक्रम द्वारा अन्यत्र संक्रान्त नहीं होती हैं । इसलिये अन्य प्रकृतियों के दलिक संक्रम द्वारा संक्रमित नहीं होते हैं। जिससे उदयप्राप्त नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय सम्भव है।' ____ 'अणुपुब्बिसगइतुल्ला' अर्थात् चारों आनुपूर्वियों का जघन्य प्रदेशोदय अपनी-अपनी गति की तरह जानना चाहिये। यानि जिस रीति से गति के जघन्य प्रदेशोदय की विचारणा की गई है, उसी प्रकार चारों आनुपूर्वियों की भावना भी कर लेना चाहिये । परन्तु इतना
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१ देव सीधा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए एकेन्द्रिय में
उत्पन्न होकर असंज्ञी में उत्पन्न होना कहा है। यहाँ प्रश्न होता है कि नारक को अपनी आयु के चरम समय में नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है, यह क्यों नहीं कहा ? क्योंकि उदय, उदीरणा द्वारा बहुत से दलिक भोगे जाने के कारण कम होते हैं एवं बंधती हुई तिर्यच, मनुष्य गति में संक्रान्त हो जाने से भी कम दलिक हो जाते हैं और ऊपर-ऊपर के स्थानों में निषेक रचना भी अल्प-अल्प होती है, जिससे अपनी-अपनी आयु के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होना कहना चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं कहने का क्या कारण है ? विद्वज्जन
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