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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३१
३६१ विशेष है कि भव के प्रथम समय में उनका जघन्य प्रदेशोदय होना समझना चाहिये-"ता पुण नेया भवाइम्मि' । इसका कारण यह है कि आनुपूर्वियों का उदय विग्रहगति में होता है और विग्रहगति तीन समय तक होती है । उसमें भी तीसरे समय जिसको बन्धावलिका व्यतीत हो गई है, ऐसी अन्य लता भी उदय में आती है, जिससे जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है। इसीलिये भव के प्रथम समय का ग्रहण किया है। तथा--
देवगई ओहिसमा नवरं उज्जोयवेयगो जाहे । चिरसंजमिणो अंते आहारे तस्स उदयम्मि ॥१३१॥
शब्दार्थ-देवगई -देवगति का, ओहिसमा-अवधिज्ञानावरण के समान, नवरं-किन्तु, उज्जोयवेयगो-उद्योत का वेदक हो, जाहे-जब, चिरसंजमिणो -चिरसंयमी, अंते-अंत समय में, आहारे-आहारक का, तस्स---उसका, उदयम्मि-उदय होने पर ।
गाथार्थ-देवगति का जघन्य प्रदेशोदय अवधिज्ञानावरण के समान समझना चाहिये। किन्तु जब उद्योत का वेदक हो तब जानना चाहिये तथा चिरसंयमी के अंत समय में आहारक का उदय होने पर उसका जघन्य प्रदेशोदय होता है।
विशेषार्थ-'देवगई ओहिसमा' अर्थात् देवगति का जघन्य प्रदेशोदय पूर्व में बताये गये अवधिज्ञानावरण के जघन्य प्रदेशोदय के अनुरूप जानना । किन्तु इतना विशेष है कि उद्योत का उदय हो तब देवगति का जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये।
उद्योत का उदय हो तब देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होने का कारण यह है कि जब तक उद्योत का उदय नहीं होता है, तब तक स्तिबुकसंक्रम के द्वारा देवगति में उद्योत के दलिक संक्रान्त होने से देवगति का जघन्य प्रदेशोदय संभव नहीं है। किन्तु जब उद्योत का
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