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पंचसंग्रह : ५
उदय होता है, तब उसका स्तिबुकसंक्रम नहीं होता है । इसीलिये उद्योत का जब उदय हो तब देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है, यह कहा है । उद्योत का उदय पर्याप्त के होता है, अपर्याप्त के नहीं, इसलिये पर्याप्तावस्था में देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होना जानना चाहिये |
'चिरसंजमिणो अंते....' इत्यादि अर्थात् देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त जिसने चारित्र का पालन किया ऐसा चौदह पूर्वधारी अंतिम काल में आहारक शरीरी हो तब उसे आहारकसप्तक और उद्योत के विपाकोदय में रहते आहार सप्तक का जघन्य प्रदेशोदय होता है । इसका कारण यह है कि दीर्घकाल तक चारित्र का पालन करने से अधिक पुद्गलों का क्षय होता है । इसीलिये चिरकाल संयमी के जघन्य प्रदेशोदय कहा है और उद्योत के उदय के ग्रहण करने का कारण पूर्व कथनानुरूप यहाँ भी समझ लेना चाहिये । तथा —
सेसाणं चक्समं तंमिव अन्नंमि वा भवे अचिरा । तज्जोगा बहुयाओ ता ताओ
वेयमाणस्स ॥१३२॥
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शब्दार्थ - सेसाणं - शेष प्रकृतियों का चक्खु समं चक्षुदर्शनावरण के समान, तंमिव - उसी के समान, अन्नंमि - अन्य दूसरे, वा - अथवा, भवे भव में, अचिरा - शीघ्र, एकदम, तज्जोगा- - उस उसके योग्य, बहुयाओ - बहुतसी, ता ताओ- उन उन प्रकृतियों का, वेयमाणस्स - वेदन करने वाले के । गाथार्थ - चक्षुदर्शनावरण के समान शेष प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय उसी (एकेन्द्रिय के) भव में अथवा यदि उस-उस प्रकृति का उस भव में उदय न होता हो तो उस उस प्रकृति के उदययोग्य अन्य भव में उस भव के योग्य बहुत-सी प्रकृतियों का वेदन करने वाले के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - जघन्य प्रदेशोदय के स्वामित्व का उपसंहार करते. हुए अंत में पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों के स्वामित्व का निर्देश करते हैं
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