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________________ ४५६ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७२, १७३ परमाणु वाला तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, इस प्रकार एक-एक परमाणु की वृद्धि करते-करते गुणितकर्माश जीव के जो सर्वोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्थान होता है, वह अंतिम प्रदेशसत्कर्मस्थान है। इस प्रकार एक स्थितिस्थान में अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । उनके समूह को स्पर्धक कहते हैं । इसी प्रकार दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब सर्वजघन्य जो प्रदेशसत्ता होता है, वह पहला सत्कर्मस्थान, एक अधिक परमाणु वाला दूसरा, इस तरह गुणितकर्मांश जीव का सर्वोत्कृष्ट जो प्रदेशसत्कर्मस्थान, वह अंतिम सत्कर्मस्थान है । इन अनंत सत्कर्मस्थानों के समूह का द्विसायिक स्थिति का दूसरा स्पर्धक कहलाता है। इसी प्रकार से तीन समय स्थिति का तीसरा, चार समय स्थिति का चौथा, इस तरह जितने एक समय प्रमाणादि स्थितिस्थान हों, उतने स्पर्धक होते हैं । अब इसी पूर्वोक्त को कुछ विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैं ---- क्षय होते-होते जब एक स्थिति शेष रहे तब उस एक स्थिति में अनेक जीवों की अपेक्षा पूर्व में कहे गये अनुसार जो अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं उनका समूह रूप वह एक स्थिति का स्पर्धक होता है । जब दो समय स्थिति शेष रहे तब उस दो समय स्थिति में जघन्य प्रदेशसत्ता से प्रारम्भ कर उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो अनंत सत्कर्म - स्थान होते हैं, उनका समूहरूप दो स्थिति का दूसरा स्पर्धक होता है । इस तरह तीन समय स्थिति शेष रहे तब उस तीन समय स्थिति में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा जो अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, उनका समूहरूप तीन समय स्थिति का तीसरा स्पर्धक होता है । इसी प्रकार से चार आदि समय स्थिति शेष रहे तब स्पर्धक कहना चाहिये । इस तरह जिन प्रकृतियों के जितने स्पर्धक संभव हों उनके उक्त प्रकार से तोन आदि स्थिति सम्बन्धी उतने स्पर्धक कहना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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