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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८८, ८६, ६०
२६१ (अबंध) स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि है'निययअबंधचुयाणं णुक्कोसो साइणाइ तमपत्ते'। यद्यपि ग्रन्थकार आचार्य ने ध्र व और अघ्र व होने के कारण का संकेत नहीं किया है, लेकिन सुगम होने से स्वयं समझ लेना चाहिए तथा अनुत्कृष्ट से शेष रहे उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य बंध एवं अन्य सत्रह ध्र वबंधिनी प्रकृतियों तथा अध्र वबंधिनी होने से अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों बंधप्रकार सादि-सांत (अध्र व) विकल्प वाले जानना चाहिये।
उक्त संक्षिप्त कथन का विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है
मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणपंचक, दानान्तराय आदि अन्तरायपंचक, निद्रा, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क को छोड़कर शेष बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन रूप दर्शना"परणचतुष्क और प्रचला इन ध्र वबंधिनी तीस प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध 'चउविगप्पो'–सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिए
ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और चक्षुदर्शनावरण आदि रूप दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट योग में वर्तमान क्षपक या उपशमक सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव को एक समय या दो समय पर्यन्त होता है। क्योंकि उत्कृष्ट योग में वर्तमान होने से वह अधिक दलिकों को ग्रहण करता है तथा आयु एवं मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने कारण उनका भाग भी इनको प्राप्त होता है एवं दर्शनावरणचतुष्क में तो स्वजातीय नहीं बंधने वाली प्रकृतियों का भाग भी प्राप्त होता है । जो प्रतिनियत एक या दो समय होने से सादि और सांत है। । तत्पश्चात् समयान्तर में मन्द योगस्थान में वर्तमान उसी जीव को अनुकृष्ट प्रदेशबंध होता है तब अथवा उपशांतमोहगुणस्थान में बंध
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