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बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६
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वह उपशम श्रेणि से च्युत होने पर होता है, अतः सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि तथा अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव जानना चाहिये ।
'आउस्स साइ- अधुवा' अर्थात् आयु के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों भेद सादि और अध्रुव -सांत हैं। क्योंकि ये चारों भेद यथायोग्य रीति से नियतकाल पर्यन्त प्रवर्तित होते हैं तथा पूर्वोक्त छह और मोहनीय, कुल मिलाकर सातों मूल कर्मों के उत्कृष्ट और जघन्यरूप शेष विकल्प सादि, अध्रुव भंगरूप हैं। क्योंकि अमुक नियतकाल पर्यन्त ही वे होते हैं । जिसका विस्तृत विचार अनुत्कृष्ट और अजघन्य विकल्पों के प्रसंग में किया जा चुका है ।
इस प्रकार से मूलकर्म विषयक सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये । अब उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी सादि-अनादि आदि भंगों का विचार करते हैं ।
'उत्तरप्रकृतियां की सादि अनादि प्ररूपणा
अजहन्नोऽणुक्कोस धुवोदयाणं चउतिहा चउहा । मिच्छत्ते सेसासि दुविहा सव्वे य सेसाणं ॥ १०६ ॥
शब्दार्थ - अजहन्नोणुक्कोसो— अजघन्य और अनुत्कृष्ट, धुवोदयाणंध्रुवोदया प्रकृतियों का, चउह-चार प्रकार का, तिहा—तीन प्रकार का, चउहा- -चार प्रकार के, मिच्छत्त े - मिथ्यात्व के, सेसासि - शेष इनके, सुविहा- दो प्रकार के, सव्वे - सब, य - और सेसाणं - शेष प्रकृतियों
के ।
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गाथार्थ - ध्रुवोदया प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार का और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार का है । मिथ्यात्व के ये दोनों चार प्रकार के है तथा इन सभी प्रकृतियों के शेष विकल्प और शेष प्रकृतियों के सभी विकल्प दो प्रकार के हैं ।
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