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________________ पंचसंग्रह : ५ ― शब्दार्थ - जं समयं - जिस समय, जावइयाई - जितने कर्मों को, बंधए - बांधता है, ताण- उनकी, एरिसविहीए - इस प्रकार की विधि से, पत्तेयं पत्तेय - प्रत्येक को, एक-एक को, भागे-भाग, निव्वत्तए - निर्वार्तित करता है, जीवो-जीव | २७६ गाथार्थ - जिस समय जितने कर्मों को बांधता है, उस समय इसी प्रकार की विधि से उनमें से प्रत्येक को जीव भाग देता है । विशेषार्थ - गाथा में कर्मदल के भाग- विभाग की प्ररूपणा का सरलता से बोध कराने के लिए विस्तार से विचार किया गया है'जं समयं जावइयाई' अर्थात् जिस समय एक अध्यवसाय द्वारा जितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, उतनी कर्म प्रकृतियों में वह दलिक विभाजित हो जाता है और वह बद्ध दलिक अधिक से अधिक ज्ञानावरणादि आठ मूलकर्म प्रकृतियों में बांटा जाता है । पूर्व में यह बताया जा चुका है कि आयुकर्म का बंध सर्वदा नहीं होता है और जब होता है तो अन्तर्मुहूर्त तक होता है, उसके बाद नहीं होता है । अतः जिस समय जीव आयुकर्म का बंध करता है, उस समय जो कर्मदल ग्रहण किया जाता है, उसके आठ भाग हो जाते हैं । किन्तु जिस समय आयुकर्म का बंध नहीं होता, उस समय जो कर्मदल ग्रहण करता है, उसका बटवारा आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों में होता है और जब दसवें सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का बंध करता है, उस समय ग्रहण किये गये कर्मदल के छह भाग हो जाते हैं और जिस समय एक ( वेदनीय) कर्म का ही बंध करता है, उस समय गृहीत कर्मदल उस एक कर्मरूप हो जाता है । जो इस प्रकार जानना चाहिये सर्वत्र वेदनीयकर्म का भाग सर्वाधिक होता है भाग स्थिति की वृद्धि के अनुरूप अधिक अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only और शेष कर्मों का होता है । अर्थात् www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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