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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६
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- इस प्रकार से आठ प्रकार के कर्मबंध की भाग-विभाग की विधि जानना चाहिये। यह विधि सात प्रकार के कर्मबंध में और छह के बंध में भी समझ लेना चाहिये । अर्थात् उन सात अथवा छह प्रकार के कर्मों का बंध होने पर जिसकी स्थिति अधिक हो उसका भाग अधिक
और जिसकी स्थिति कम हो उसका भाग कम समझना।1 ___ अब इसी बात को ग्रन्थकार आचार्य विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैं---
जं समयं जावइयाई बंधए ताण एरिसविहीए । पत्तेयं पत्तेयं भागे निव्वत्तए जीवो ॥७६||
१ यहाँ सामान्य से विभाग का क्रम बताया है कि अमुक कर्म को अधिक
और अमुक को कम भाग मिलता है। किन्तु गो. कर्मकाण्ड में इस क्रम को - बताने के साथ-साथ विभाग करने की रीति भी बतलाई है
बहुमागे समभागो अहं होदि एक भागम्हि ।
उत्तकमो तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देओ दु॥१६॥ अर्थात् बहुभाग के समान आठ भाग करके आठों कर्मों को एक-एक भाग देना चाहिये । शेष एक भाग का पुनः बहुमाग करके और वह बहु भाग बहुत हिस्से वाले कर्म को देना चाहिए ।
इस रीति के अनुसार एक समय में जितने पुद्गलद्रव्य का बंध हो, उसमें आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग को अलग रख शेष बहुभाग के आठ समान भाग कर आठों कर्मों को देना चाहिये । इसके बाद शेष एक भाग में पुनः आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग अलग रख बहु भाग वेदनीय कर्म को देना चाहिए । इसी रीति से आगे बहु भाग उत्तरोत्तर अधिक स्थिति वाले कर्म को देना चाहिए और उनमें जो समान स्थिति वाले हों तो प्राप्त भाग उतने समान हिस्सों में बांट देना चाहिए।
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