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पंचसंग्रह : ५ के भेद के बिना कार्य का भेद नहीं होता है । यदि कारण के भेद बिना कार्य का भेद हो तो अमुक कार्य का अमुक कारण है, यह नियत सम्बन्ध नहीं बन सकता है। यहाँ ज्ञानावरणादि के भेद से कर्म में अनेक प्रकार की विचित्रता है, इसलिये उसके हेतुभूत अध्यवसाय को भी शुद्ध एक स्वरूप वाला नहीं परन्तु अनेक स्वरूप वाला मानना चाहिये। वह चित्रताभित एक अध्यवसाय उस उस प्रकार की द्रव्य, क्षेत्र, कालादि सामग्री के आधार से संक्लेश अथवा विशुद्धि को प्राप्त होते हुए भी किसी समय आठ कर्म का बंधहेतु होता है, किसी समय सात कर्म का, किसी समय छह कर्म का और किसी समय एक कर्म का ही बंधहेतु होता है ।
एक अध्यवसाय से ग्रहण किये गये कर्मदलिक का ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के बंधरूपेण परिणत होने का कारण यह है कि आत्मा का अध्यवसाय ही उस प्रकार का होता है, जिसके द्वारा एक अध्यवसाय से ग्रहण किया गया कर्मदलिक आठ आदि प्रकार के बंध रूप से परिणत होता है। जैसे कुम्भकार मिट्टीपिण्ड के द्वारा सराब आदि अनेक आकृतियों को परिणत करता है । क्योंकि उसका उस प्रकार का परि णाम है। इसी प्रकार एक परिणाम द्वारा बांधा गया कर्मदलिक भी ज्ञानावरणादिक आठ कर्मबंध रूप परिणाम को प्राप्त करता है।
१ जिसमें अनेक प्रकार के कार्य करने रूप विचित्रता रही हुई हो, उसे चित्रता.
गर्भ करते हैं । यहाँ अध्यवसाय को चित्रतागर्म कहने का अर्थ यह हुआ कि अनेक प्रकार के विचित्र कार्य उत्पन्न करे ऐसा वह है। यदि ऐसा न हो तो कर्म में अल्पाधिक स्थिति, रस, दलिक प्राप्ति होने रूप विचित्रता न हो और शुद्ध एक अध्यवसाय हो तो एक जैसा-सदृश कार्य ही हो । चित्रतागर्भ अध्यवसाय के होने में कर्म का उदय कारण है। प्रति समय आठों कर्म का उदय हो तो वे समान स्थिति एवं रस वाले नहीं होते हैं। उनका एवं विचित्र द्रव्य-क्षेत्रादि का असर आत्मा पर होता है । जिससे अध्यवसाय विचित्र होता है और उससे कर्मबंध रूप कार्य भी विचित्र
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