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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७८
२७३ ___ मोहनीयकर्म की स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होने से इन तीनों कर्मों से भी उसका भाग अधिक है।
स्थिति के अनुसार कर्मों को अपना-अपना भाग प्राप्त करने का उक्त सामान्य नियम है । लेकिन उसमें वेदनीयकर्म अपवाद रूप है। यद्यपि तीसरे वेदनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के समान तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। जो मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति से आधी भी नहीं है। फिर भी उसका भाग सबसे अधिक है और उसका भाग सबसे अधिक होने का कारण यह है कि तीसरे वेदनीयकर्म के हिस्से में यदि अल्प दलिक आयें तो सुख-दुःखादि का स्पष्ट अनुभव नहीं हो सकता है । यानि वेदनीयकर्म द्वारा जो स्पष्ट रूप से सुख-दुःख का अनुभव होता है वह यदि उसके भाग में अल्प दलिक आयें तो न हो । वह अधिक पुद्गल मिलने पर ही अपना कार्य करने में समर्थ है । अल्पदल होने पर वेद-नीय प्रगट ही नहीं होता है। इसी कारण उसे सबसे अधिक भाग मिलता है—'तस्स फुडत्तं जओ णप्पे'।
मूलकों को भाग प्राप्त होने का उक्त विचार एक अध्यवसाय द्वारा ब्रहण की गई कर्मवर्गणाओं की अपेक्षा समझना चाहिये । जिसका कारण उस एक अध्यवसाय का विचित्रताभित होना है। यदि ऐसा न हो तो कर्म में विद्यमान विचित्रता सिद्ध ही न हो । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये
यदि अध्यवसाय एक ही स्वरूप वाला हो तो उसके द्वारा ग्रहण किया गया कर्म भी एक स्वरूप वाला ही होना चाहिये । क्योंकि कारण
१ स्थिति और प्रदेश बंध के हेतु क्रमशः कषाय और योग हैं। अतएव यहाँ
यह समझना चाहिए कि कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति द्वारा स्थिति में वृद्धि होने के साथ-साथ अधिक कर्मप्रदेशों का बंध होता है। तभी उस-उस कर्म को अधिक कर्मप्रदेशों की प्राप्ति संभव है।
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