________________
४६
बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
एक तक के पांच बंधस्थान अनिवृत्ति - बादरसंप रायगुणस्थान में होते हैं । 1
मोहनीय कर्मप्रकृतियों के दस बंधस्थान होने का सविगत विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
---
यद्यपि मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियां अट्ठाईस हैं । लेकिन उनमें से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमोहनीय का तो बंध ही नहीं होता है तथा तीन वेदों में से एक समय में एक ही वेद का, हास्य- रति और शोक-अरति इन दो युगलों में से भी एक समय में एक युगल का बंध होता है । अतः छह प्रकृतियों को कम कर देने पर शेष बाईस प्रकृतियां ही एक समय में बंध को प्राप्त होती हैं। जिनके नाम हैंमिथ्यात्व अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि सोलह कषाय, वेदत्रिक में से कोई एक वेद, युगलद्विक में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा । इस बाईस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध केवल पहले मिथ्यात्वगुणस्थान में होता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के सिवाय शेष इक्कीस प्रकृतियों का, तीसरे और चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबंधिचतुष्क के सिवाय शेष सत्रह प्रकृतियों का, पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्याना -
१ गो. कर्मकाण्ड में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों और उनके स्वामियों का निर्देश इसी प्रकार हैबावीस मेक्कवीसं
सत्तारस तेरसेव णव पंच |
चदुतियदुगं च एक्कं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ||४६३ || बावीस मेक्कवीसं सत्तर सत्तार तेर तिसु णवयं ।
थूले पण चदुतियदुगमेक्कं मोहस्स ठाणाणि ॥ ४६४ ॥
२ यद्यपि यहाँ नपुंसकवेद का बंध नहीं होता है तो भी उसकी पूर्ति स्त्री या पुरुष वेद के बंध से हो जाती है । इसीलिए यहाँ मिथ्यात्व को कम किया है । बंध नहीं होता है । पुरुषवेद का बंध आगे पुरुषवेद की अपेक्षा नौवें गुण
३ इन दोनों गुणस्थानों में स्त्रीवेद का होने से यहाँ वेद को ग्रहण किया है। स्थान के प्रथम भाग तक वेद का ग्रहण समझना चाहिये ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org