SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह : ५ वरणचतुष्क का बंध न होने के कारण शेष तेरह प्रकृतियों का ही बंध होता है । छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का बंध न होने से शेष नौ प्रकृतियों का बध होता है । आठवें गुणस्थान के अन्त में हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का बंधविच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग में पांच ही प्रकृतियों का, दूसरे भाग में वेद के बंध का अभाव हो जाने से चार का, तीसरे भाग में संज्वलन क्रोध के बंध का अभाव हो जाने के कारण तीन का, चौथे भाग में संज्वलन मान का बंधन होने से दो प्रकृतियों का और पांचवें भाग में संज्वलन माया का भी बंध न होने से केवल एक संज्वलन लोभ का ही बंध होता है और उसके आगे दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में बंध की कारणभूत बादरकषाय का अभाव होने से उस एक प्रकृति का भी बंध नहीं होता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म के बाईसप्रकृतिक आदि एकप्रकृतिक पर्यन्त दस बंधस्थान जानना चाहिये । ५० नामकर्म - इसके आठ बंधस्थान हैं तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक ' । ये बंधस्थान नाना जीवों के आश्रय से अनेक प्रकार के हैं, जिनका स्वयं ग्रन्थकार आगे सप्ततिका संग्रह में विस्तार से विवेचन करने वाले हैं। किन्तु प्रकृत में आवश्यक होने से संक्षेप में उनका यहाँ निर्देश करते हैं । नामकर्म की कुल प्रकृतियां १०३ / ९३ हैं और सामान्य से बंध योग्य प्रकृतियां सड़सठ (६७) मानी गई हैं । किन्तु उनमें से एक समय में एक जीव के तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियां ही बंध को प्राप्त होती १ दिगम्बर साहित्य में भी नामकर्म के इसी प्रकार आठ बंधस्थान माने हैं तेवीसं पणवीसं छव्वीसं तीसेक्ती समेवं एक्को Jain Education International अठवीस मुगतीसं । बंधो दुसेदिहि || -गो कर्मकाण्ड, For Private & Personal Use Only गा. ५२१ www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy