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________________ १८ पंचसंग्रह : ५ करके एक आवलिका जितने काल में भोगी जाये ऐसी निषेक रचना को उदयावलिका कहते हैं और उस उदयावलिका से ऊपर के स्थितिस्थानों में रहे हुए दलिकों को कषाययुक्त या कषाय बिना के योग संज्ञक वीर्य विशेष द्वारा खींचकर उदयावलिका में विद्यमान दलिकों के साथ भोगने योग्य करने को उदीरणा कहते हैं । इसलिये सत्ता में ही जब किसी कर्म की एक आवलिका शेष रहे, तब उस आवलिका के ऊपर अन्य कोई भी स्थितिस्थान नहीं है जिनमें से दलिक खींचकर उदयावलिका में प्रवेश कराया जाये, इसलिये उस समय उदय होता है, परन्तु उदीरणा नहीं होती है । गाथागत ‘उ–तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से यह जानना चाहिये कि नाम और गोत्र कर्म का अयोगिकेवलि अवस्था में उदय होता है, किन्तु योग का अभाव होने से वहां उदीरणा नहीं होती है । यद्यपि नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की पर्यन्तावलिका चौदहवें गुणस्थान में शेष रहती है परन्तु वहां योग का अभाव होने से उदीरणा होती ही नहीं है । इनमें से नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त और वेदनीय की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त होती है । आयु कर्म की पर्यन्तावलिका उपशम श्रेणि में तीसरे गुणस्थान को छोड़कर ग्यारहवें गुणस्थान तक में शेष रह सकती है । इसका कारण यह है कि तीसरे को छोड़कर ग्यारह गुणस्थान तक में मरण होना संभव है और क्षपकश्रेणि में चौदहवें गुणस्थान में ही शेष रहती है, किन्तु उसकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है । आगे के गुणस्थानों में अधिक आयु सत्ता में हो भी किन्तु उदीरणा नहीं होती है इसका कारण पूर्व में बतलाया जा चुका है । १ उदयावलिकातो वहिर्वर्तिनीनां स्थितीनां दलिकं कषायैः सहितेनासहितेन वा योग संज्ञिकेन वीर्यविशेषेण समाकृष्योदयावनिकायां प्रवेशनमुदीरणा । - पंचसंग्रह मलय ० टीका पृ. १६३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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