________________
बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३
गाथार्थ - उदीरणायोग्य स्थिति से उदययोग्य स्थिति एक स्थिति स्थान से अधिक है ।
विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध में उदीरणायोग्य स्थिति से उदययोग्य स्थिति की अधिकता का निर्देश किया है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है
३४१
उदीरणायोग्य उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियों की उदीरणा योग्य जो स्थितियां हैं, उनसे उदययोग्य स्थितियां उदय प्राप्त एक स्थिति से अधिक हैं । अर्थात् उदीरणा के द्वारा अधिक से अधिक जितने स्थितिस्थानों में के दलिकों का अनुभव किया जाता है उनसे उदय द्वारा एक स्थितिस्थान के अधिक दलिकों का अनुभव किया जाता है । जो इस प्रकार जानना चाहिये कि उत्कृष्ट स्थिति जब बंधती है तब carriera में भी पहले बंधे हुए या जिनका अबाधाकाल बीत गया वे दलिक हैं । क्योंकि अबाधाकाल तो विवक्षित समय में बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का होता है, किन्तु सम्पूर्ण कर्मलता का नहीं होता है । उदाहरणार्थ - जिस समय उत्कृष्ट स्थिति वाले मतिज्ञानावरण कर्म का बंध हो तब उस समय से लेकर उसका तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल होता है, परन्तु सम्पूर्ण मतिज्ञानावरण कर्म का नहीं होता है । क्योंकि पूर्व में बँधे हुए मतिज्ञानावरण का या जिसका अबाधाकाल बीत गया है, उसकी दलरचना तो विवक्षित समय में बंधे हुए मतिज्ञानावरण के अबाधाकाल में भी होती है । अतः जब उत्कृष्ट स्थिति का बंध हो तब बंधावलिका के पूर्ण होने के बाद उसके पीछे के स्थितिस्थानों को विपाकोदय द्वारा अनुभव करने वाला जीव उस समय से लेकर उदयावलिका से ऊपर के समस्त स्थितिस्थानों की उदीरणा करता है और उदीरणा करके अनुभव करता है । अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति का जिस समय बंध होता है, उस समय से लेकर बंधावलिका जिस समय पूर्ण होती है, उसके अनन्तरवर्ती स्थान को रसोदय से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org