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पंचसंग्रह : ५ गत दलिकों के साथ जो वेदन किया जाता है, उसे प्रयोग से किया जानेवाला उदय कहते हैं । इसके अपर नाम असंप्राप्तोदय अथवा उदीरणोदय भी हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अबाधाकाल का क्षय होने पर स्वाभाविक रीति से होने वाला उदय स्वभावोदय और वह स्वाभाविक उदय हो तब उदीरणाकरण रूप प्रयत्न द्वारा होने वाला उदय उदीरणोदय है। इस तरह उदय दो प्रकार से होता है। __यहाँ स्थिति-उदय का स्वरूप कहने के प्रसंग में उदय के दो प्रकार बताने का कारण यह है कि जितने स्थिति-स्थानों का उदीरणा से अनुभव किया जाता है, उसकी अपेक्षा उदय से अनुभव किये जाने वाले स्थान अधिक होते हैं ।
सामान्यतया उस स्थिति का उदय जघन्य और उत्कृष्ट इस तरह दो प्रकार का है। स्थिति के उदय का अर्थ है उन-उन स्थानों में विद्यमान दलिकों का उदय । परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिये कि जिन-जिन स्थानों में भोगने के लिये दलिकों की रचना हई है, उनमें का कोई भी स्यान उदीरणा द्वारा खाली नहीं किया जा सकता है, किन्तु उन-उन स्थानों में के दलिकों को योगानुसार खींचकर उदयावलिका के स्थानों में रहे हए दलिकों के साथ भोगने योग्य किया जाता है। उसमें अधिक से अधिक जितने स्थानों में के दलिकों का अनुभव किया जाता है उसे उत्कृष्ट स्थिति-उदय और कम से कम जितने स्थानों में के दलिकों का अनुभव किया जाता है उसे जघन्य स्थिति-उदय कहते हैं। - उदीरणाकरण द्वारा जितने स्थानों के दलिकों का अनुभव किया जाता है, उसकी अपेक्षा उदय से अनुभव किये जाने वाले दलिक अधिक होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
उद्दीरणजोग्गाणं अब्भहियठिईए उदयजोग्गाओ। शब्दार्थ-उदीरणजोग्गाणं-उदीरणायोग्य स्थिति से, अब्भहियठिईएएक स्थिति-स्थान से अधिक, उदयजोग्गाओ-उदययोग्यस्थिति ।
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