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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार गाथा : ७५, ७६ २६३ - शब्दार्थ - सेढिअसं खेज्जसो — श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण, जोगट्ठाणा -- योगस्थान, तओ— उनसे, असंखेज्जा - असंख्यातगुणे, पयडी भेय:प्रकृति के भेद, तत्तो -- उनसे, ठिइभेया- स्थिति के भेद, होंति - होते हैं, तत्तोवि - उनसे भी, ठिइबंधज्झवसाया- स्थितिबंधा ध्यवसाय स्थान, तत्तो उनसे, अणुभागबंधठाणाणि - अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान, तत्तो — उनसे, कम्मपएसा - कर्म के प्रदेश, पंतगुणा - अनन्तगुणे, तो — उनसे, रसच्छेया- रसच्छेद रा गाथार्थ - श्रेणि के असंख्यातवें भाग में वर्तमान आकाशप्रदेशप्रमाण योगस्थान हैं, उनसे प्रकृति के भेद असंख्यातगुणे, उनसे असंख्यातगुणे स्थिति के भेद हैं, उनसे असख्यातगुणे स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान हैं, उनसे असंख्यातगुणे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हैं, उनसे अनन्तगुणे कर्मप्रदेश हैं और उनसे भी रसच्छेदरसाणु अनन्तगुणे हैं । विशेषार्थ - बंध के निरूपण में विचार के केन्द्रबिन्दु दो हैं - एक बंध और दूसरा उसके कारण । यद्यपि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बंध चार हैं, किन्तु उनके कारण तीन हैं। क्योंकि प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का कारण एक ही है । अतः बंध-विचार के प्रसंग में उनके परिकर के रूप में सात बातें ग्रहण की जाती हैं - (१) प्रकृतिभेद ( २ ) स्थितिभेद ( ३ ) कर्मस्कध - प्रदेशभेद और ( ४ ) रसच्छेद अर्थात् अनुभागभेद और उनके कारण के रूप में (५) योगस्थान ( ६ ) स्थितिबंधाध्यवसायस्थान तथा (७) अनुभागबंधाध्यवसायस्थान । इन दो गाथाओं में इन्हीं सातों का अल्पबहुत्व बतलाया है । अर्थात् यह बताया है कि इन सातों में किसकी संख्या परिमाण कम है और और किसकी संख्या अधिक है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सात राजू प्रमाण घनीकृत लोकाकाश की एक प्रादेशिकी पंक्ति अर्था एक-एक प्रदेश की जो पंक्ति उसे श्रेणि, सूचिश्रेणि कहते हैं । उस श्रोणि के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने योगस्थान हैं - 'सेढिअसं खेज्जसो जोगट्ठाणा' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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