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________________ पंचसंग्रह : ५ इन योगस्थानों से असंख्यातगुणे ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के भेद हैं— 'तओ असंखेज्जा पयडीभेया' । इसका कारण यह है कि यद्यपि मूल प्रकृतियां आठ हैं और उत्तर प्रकृतियां एक सौ अड़तालीस बताई गई हैं । किन्तु बंध की विचित्रता से एक - एक प्रकृति के असंख्यात भेद हो जाते हैं । ये भेद एक-एक प्रकृति की तीव्र और मंदरूपता द्वारा उत्पन्न हुए विशेषों की अपेक्षा से माने जाते हैं । उदाहरण के लिये अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण को ले लीजिये कि इन के असंख्यात लोकाकाश प्रदेशप्रमाण भेद हैं। क्योंकि उन भेदों के विषय रूप क्षेत्र और काल के तारतम्य द्वारा क्षयोपशम के उतने भेद शास्त्र में बताये गये हैं तथा चारों आनुपूर्वीनामकर्म के बंध और उदय की विचित्रता से लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशप्रमाण भेद हैं । २६४ इसी प्रकार शेष प्रकृतियों के भी उस उस प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, और स्वरूपादि रूप सामग्री की विचित्रता की अपेक्षा असंख्यात भेद समझ लेना चाहिये । इसलिए योगस्थानों से असंख्यातगुणं प्रकृति के भेद होते हैं। क्योंकि एक-एक योगस्थान में बंध की अपेक्षा प्रकृति के समस्त भेद घटित होते हैं, यानी एक-एक योगस्थान में वर्तमान अनेक जीवों द्वारा अथवा कालभेद से एक जीव द्वारा ये सभी प्रकृतियां बंधती हैं । इन प्रकृति के भेदों से स्थिति के भेद — स्थितिविशेष असंख्यातगुणे हैं - ' तत्तो ठिइभेया होंति' । जघन्य स्थिति से प्रारम्भ कर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त जितने समय होते हैं, उतने स्थितिविशेष हैं । एक साथ जितनी स्थिति का बंध हो उसे स्थितिस्थान अथवा स्थितिविशेष कहते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - जघन्य स्थिति यह पहला स्थितिस्थान, समयाधिक जघन्य स्थिति यह दूसरा स्थितिस्थान, दो समयाधिक जघन्य स्थिति यह तीसरा स्थितिस्थान, इस तरह एकएक समय की वृद्धि करते-करते उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये, यह अन्तिम स्थितिस्थान है । इस प्रकार असंख्याता स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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