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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणषट्क, एक वेदनीय, सत्रह मोहनीय, एक आयु, एक गोत्र, अंतरायपंचक और नामकर्म की तीस प्रकृतियां। २१-उस चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से च्युत होकर मिथ्यात्व में गये हुए को नामकर्म की तेईस प्रकृतियों और आयु का भी बंध करने एवं मिथ्यात्वमोहनीय, अनन्तानुबंधीचतुष्क तथा स्त्यानद्धित्रिक अधिक बांधने पर सड़सठप्रकृतिक बंधरूप इक्कीसवां भूयस्कार होता है। २२-इसी मिथ्यादृष्टि के नामकर्म की पच्चीस प्रकृतियों का बंध करने और आयु का बंध नहीं करने से अड़सठप्रकृतिक बंधरूप बाईसवां भूयस्कार होता है। २३-उसी पच्चीस के बंधक के आयु का बंध करने पर उनहत्तरप्रकृतिक धरूप तेईसवां भूयस्कार होता है। २४-मिथ्यादृष्टि के नामकर्म की छब्बीस प्रकृतियों का बंध होने पर सत्तरप्रकृतिक बंधरूप चौबीसवां भूयस्कार होता है। २५-नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का बांध करने और आयु का बंध नहीं करने पर इकहत्तरप्रकृतिक बंधरूप पच्चीसवां भूयस्कार होता है। २६-उसी के आयु का बंध करने पर बहत्तरप्रकृतिक धरूप छब्बीसवां भूयस्कार होता है। २७-नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर तिहत्तरप्रकृतिक बंधरूप सत्ताईसवां भूयस्कार होता है। २८-उसी मिथ्याप्टि के नामकर्म की तिर्यंचगति-प्रयोग्य तीस प्रकृतियों का बांध होने पर चौहत्तरप्रकृतिक बधरूप अट्ठाईसवां भूयस्कार जानना चाहिये । चौहत्तर प्रकृतियां इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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