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________________ पंचसंग्रह : ५ ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, एक वेदनीय, मोहनीय बाईस, आयु एक, गोत्र एक, अंतरायपंचक और नामकर्म की तीस प्रकृतियां | अधिक से अधिक एक समय में एक जीव के चौहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । ७० पूर्वोक्त भूयस्कारों में से कितने ही भूयस्कार अन्यान्य बंघस्थानों की अपेक्षा से अनेक बार होते हैं, परन्तु उनका एक बार ग्रहण हो जाने और अवधि के भेद से भयस्कार के भेदों की विवक्षा नहीं होने से उनको यहाँ गिना नहीं है । परन्तु इतना ध्यान में रखना चाहिये कि एक भूयस्कार अनेक प्रकार से भी होता है । किन्तु मूल में भूयस्कार तो अट्ठाईस ही होते हैं । इस प्रकार सामान्यापेक्षा सभी कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों के भूयस्कारबंध जानना चाहिये । अब इन्हीं बंधस्थानों में अल्पतरबंध का विचार करते हैं । अल्पतरबंध - जिस क्रम से प्रकृतियों की वृद्धि करके भूयस्कारबंध का निर्देश किया, उसी क्रम से पश्चानुपूर्वी के क्रम से प्रकृतियों को कम करने पर अल्पतरबंध होते हैं । अतएव उनतीस बंधस्थानों में अट्ठाईस अल्पतरबंध जानना चाहिए । क्रमानुसार जो इस प्रकार हैं १-२ – ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, एक वेदनीय, बाईस मोहनीय, एक आयु, तीस नामकर्म, एक गोत्र और अन्तरायपंचक, इन चौहत्तर प्रकृतियों का बंध करके उनमें से आयु या उद्योत प्रकृति को कम करके बांधने पर तिहत्तरप्रकृतिक पहला और दोनों को न बांधने पर बहत्तरप्रकृतिक दूसरा अल्पतरबंध होता है । ३ - नामकर्म की अट्ठाईस और शेष छह कर्म की तेतालीस कुल इकहत्तर प्रकृतियों को बांधने पर तीसरा अल्पतर होता है । ४ - एकेन्द्रिय-योग्य नामकर्म की छब्बीस, आयु और शेष छह कर्मों की तेतालीस इस प्रकार सत्तर प्रकृतियों को बांधने पर चौथा अल्पतर होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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