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________________ १४८ पंचसंग्रह : ५ करना । इस द्वार में मूल और उत्तर प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट जितनी स्थिति बंधती है, उसका विचार किया जायेगा। अतएव पहले मूल कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं। मूल प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मोहे सबरी कोडाकोडीओ वीस नामगोयाणं । तीसियराण चउण्हं तेत्तीसयराइं आउस्स ॥३१॥ शब्दार्थ-मोहे-मोहनीयकर्म की, सयरी-सत्तर, कोडाकोडीओकोडाकोडी, वीस-बीस, नामगोयाण-नाम और गोत्र की, तीसियराणतीस इतर, चउण्हं-चार की, तेत्तीसयराइं--- तेतीस सागरोपम, आउस्सआयुकर्म की। ___ गाथार्थ- मोहनीयकर्म की सत्तर कोडाकोडी, नाम और गोत्र की बीस कोडाकोडी, इतर अर्थात् दूसरे अन्य ज्ञानावरण आदि चार कर्मों की तीस कोडाकोडी तथा आयु की तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बंधती है। विशेषार्थ-गाथा में ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट बंधस्थिति का प्रमाण बतलाया है। जिसका कथन-१ सबसे अधिक स्थिति वाले कर्म, २ समान स्थिति वाले कर्म और २ पूर्वोक्त कर्मों की अपेक्षा अल्प स्थिति वाले कर्म का निर्देश करके किया है। उक्त निर्देश का स्पष्टीकरण इस प्रकार है मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट बंधस्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है। नाम और गोत्र की बीस-बीस कोडाकोडी सागरोपम की, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की तीस-तीस कोडाकोडी सागरोपम की तथा आयुकर्म की तेतीस सागरो. पम स्थिति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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