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पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ३
मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों में सम्भव भूयस्कार आदि बंधप्रकारों के विषय में दिगम्बर कार्म ग्रन्थिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं ।
श्वेताम्बर कर्मसाहित्य की तरह दिगम्बर साहित्य में भी मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों के बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक इस प्रकार दस बंधस्थान बतलाये हैं। लेकिन इनमें सम्भव भूयस्कर आदि बंधप्रकारों के विषय में अन्तर है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में नौ भूयस्कर, आठ अल्पतर, दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंधप्रकार बताये हैं। जबकि दिगम्बर आचार्यों ने इन्हीं दस बंधस्थानों में बीस भूयस्कार, ग्यारह अल्पतर, तेतीस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंधप्रकार बताये हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-.
श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में मोहनीयकर्म के दस बंधस्थानों में जो नौ भूयस्कार आदि बंधप्रकार बताये हैं, वे केवल गुणस्थानक्रम में आरोहण और अवरोहण की अपेक्षा हैं। किन्तु दिगम्बर साहित्य में उक्त दृष्टि के साथ इसका भी ध्यान रखा है कि आरोहण के समय जीव किस गुणस्थान से किसकिस गुणस्थान में जा सकता है और अवरोहण के समय किस गुणस्थान से किसकिस गुणस्थान में आ सकता है । इसके अतिरिक्त मरण की अपेक्षा भी सम्भव भूयस्कार आदि बंधप्रकारों को ग्रहण किया है।
श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में एक से दो, दो से तीन, तीन से चार आदि का बंध बतलाकर दस बंधस्थानों में जो नौ भूयस्कारबंध बतलाये हैं, उनको ग्रहण करते हुए दिगम्बर कर्मसाहित्य में जो ग्यारह अधिक भूयस्कारबध बताये हैं, उनमें पांच की अधिकता तो मरण की अपेक्षा और छह की अधिकता ऊपर के गुणस्थान से पतन कर किस-किस गुणस्थान में आगमन सम्भव होने की अपेक्षा है।
मरण की अपेक्षा सम्भव पांच भूयस्कारबंध इस प्रकार हैं-(१) एक को बांधकर सत्रह का, (२) दो को बांधकर सत्रह का, (३) तीन को बांधकर सत्रह का, (४) चार को बांधकर सत्रह का और (५) पांच को बांधकर सत्रह का जीव बंध करता है । उसका कारण यह है कि एक से लेकर पांच प्रकृतिक तक के पांच बंधस्थान नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के पांचवें, चौथे
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