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परिशिष्ट ३ ३. दिगम्बरसाहित्यगत मोहनीयकर्म के भयस्कार
आदि बंधप्रकारों का वर्णन यद्यपि संसारी जीवों को प्रति समय कर्मबन्ध होता रहता है, लेकिन कारणापेक्षा उस बंध में अल्पाधिकता आदि होती है। इसी दृष्टि से बंध के चार प्रकार हो जाते हैं - भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य । इन चारों प्रकारों की लाक्षणिक व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है कि क्रमशः अधिकअधिक प्रकृतियों को बांधने को भूयस्कारबंध, क्रमशः हीन-हीन प्रकृतियों को बांधने को अल्पतर, पूर्व और उत्तर समय में सम-संख्या में कर्म प्रकृतियों के बंध होने को अवस्थित एवं किसी भी प्रकृति का बंध न करके पुनः उसके बंध करने को अवक्तव्य कहते हैं।
ये चारों बंधप्रकार काल्पनिक नहीं हैं किन्तु जीव परिणति पर आधारित हैं। इसीलिए कार्म ग्रन्थिक आचार्यों ने एतविषयक विशद विवेचन किया है
और यह करना इसलिए आवश्यक है कि जीव की परिणति की तरतमता से ही कर्मबंध में अल्पाधिकता होती है ।
श्वेताम् ,र और दिगम्बर दोनों कार्मग्रन्थिक आचार्यों ने इनकी अत्यधिक स्पष्टता के साथ व्याख्या की है। इस व्य ख्या में अपेक्षादृष्टि से कुछ भिन्नता भी है और समानता भी है । जैसे कि दोनों परम्परायें दर्शनावरण, मोहनीय और नाम इन कर्मों की उत्तर कृतियों में भूयस्कार आदि बंध प्रकारों को समान रूप से मानती हैं तथा दर्शनावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों एवं उनके बंधनकारों में समानतन्त्रीय हैं, किन्तु मोहनीय और नाम कर्म की प्रकृतियों के बंधप्रकारों के विषय में अन्तर है। शेष रहे ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र इन पांच कर्मों की उत्तर-कृतियों के बंधस्थानों एवं उनमें सम्भव बंधत्रकारों के वर्णन में एकरूपता है ।
इस प्रकार से सामान्य भूमिका का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् अब
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