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पंचसंग्रह : ५ तीसरे, दूसरे और पहले भाग में होते हैं और उन बंधस्थानों में रहते यदि कोई जीव मरण को प्राप्त हो तो उत्तर समय में वह जीव वैमानिक देव होता है और वहाँ चौथा अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान होता है । जिससे उस गुणस्थान में बंधने वाले सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करता है। इसी कारण ये पांच भूयस्कार बंध मरण की अपेक्षा बताये हैं।
__पतनोन्मुखी उपशमणि वाला कोई जीव छठे गुणस्थान में नौ प्रकृतियों का बंध करके पांचवें गुणस्थान में आकर तेरह का, चौथे गुणस्थान में आकर सत्रह का, दूसरे गुणस्थान में आकर इक्कीस का और पहले गुणस्थान में आकर बाईस का बंध करता है। क्योंकि छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान से च्युत होकर जीव नीचे के सभी गुणस्थानों में जा सकता है। अतः नौ के चार भूयस्कारबंध होते हैं तथा इसी प्रकार पांचवें गुणस्थान में तेरह का बंध करके सत्रह, इक्कीस और वाईस का बंध कर सकता है। अतः तेरह के तीन भूयस्कार होते हैं और सत्रह को बांधकर इक्कीस और बाईस का बंध कर सकता है, जिससे सत्रह के दो भूयस्कारबंध होते हैं । इस प्रकार नौ के चार, तेरह के तीन और सत्रह के दो भूयस्कारबंध होते हैं । जो श्वेताम्बर साहित्य में प्रत्येक बंधस्थान के एक-एक, इस प्रकार तीन बताये गये भूयस्कारबंधप्रकार से छह अधिक हैं। अतः ये छह और मरण की अपेक्षा ऊपर बताये गये पांच भूयस्कारबंधों को मिलाने से दिगम्बर साहित्य में ग्यारह भूयस्कारबंध अधिक कहे हैं। किन्तु सामान्य से गुणस्थान-अवरोहण की अपेक्षा विचार किया जाये तो दोनों परम्पराओं के विचार में अन्तर नहीं है।
दिगम्बर साहित्य में जो अल्पतरबंधप्रकार की संख्या श्वेताम्बर साहित्य की तरह आठ न बताकर ग्यारह बताई है, उसका स्पटीकरण इस प्रकार है
श्वेताम्बर साहित्य में बाईस को बांधकर सत्रह का बंधरूप केवल एक ही अल्पतर बंध बताया है। किन्तु दिगम्बर साहित्य का मंतव्य है कि पहले गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक जीव दूसरे और छठे गुणस्थान के सिवाय शेष सभी गुणस्थानों में जा सकता है। अतः बाईस को बांधकर सत्रह, तेरह और नौ का बंध कर सकने के कारण बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के तीन
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