SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ३ २१ अल्पतरबंध होते हैं तथा सत्रह का बंध करके तेरह और नौ का बंध कर सकने के कारण सत्रह के बंधस्थान के दो अल्पतरबंध होते हैं । इस प्रकार बाईस प्रकृतिक स्थान सम्बन्धी दो और सत्रह प्रकृतिक स्थान सम्बन्धी एक की अधिकता से कुछ ग्यारह अल्पतर बंध हो जाते हैं । अवक्तव्यबंध की संख्या के बारे में दोनों परम्परायें समानतन्त्रीय हैं, कोई मतभिन्नता नहीं है । दिगम्बर साहित्य में भी एक प्रकृतिक और सत्रह प्रकृतिक ये दो अवक्तव्यबंध माने हैं । दिगम्बर साहित्य में अवस्थितबंध तेतीस बताये हैं । ये तेतीस अवस्थितबंधप्रकार पूर्व में बताये गये बीस भूयस्कार, ग्यारह अल्पतर और दो अवक्तव्य बंध इनकी अपेक्षा से हैं। क्योंकि जितनी प्रकृतियों का बंध पहले समय में हुआ है, उतनी ही प्रकृतियों का बंध दूसरे समय में हो, उसे अवस्थितबंध कहते हैं । लेकिन यथार्थ दृष्टि से देखा जाये तो मूल अवस्थित बंध उतने ही हैं जितने कि बंधस्थान होते हैं । इसीलिए श्वेताम्बर कर्म - साहित्य में मोहनीयकर्म के दस बंधस्थान होने से दस अवस्थितबंध बताये हैं । इस प्रकार सामान्य से दिगम्बर साहित्य के अनुसार मोहनीयकर्म के बंधस्थानों के चारों बंधप्रकारों की संख्या जानना चाहिए । अब विशेष रूप से भी जिन भूयस्कारों आदि को गिनाया है, उनकी संख्या बतलाते हैं एक सौ सत्ताईस भूयस्कार, पैंतालीस अल्पतर और एक सौ पचहत्तर अवस्थित बंध होते हैं । ये बंध भंगों की अपेक्षा से बनते हैं । अतः इनकी संख्या को जानने के लिए पहले भंगों का विचार करते हैं । एक ही बंधस्थान में प्रकृतियों के परिवर्तन से जो विकल्प होते हैं, उन्हें भंग कहते हैं । जैसे बाईस प्रकृतिक बंधस्थान में तीन वेदों में से एक वेद का और हास्य - रति तथा शोक-अरति के दो युगलों में से एक युगल का बंध होता है । अतः उसके ३ x २ = ६ भंग होते हैं । अर्थात् बाईस प्रकृतिक बंधस्थान को कोई जीव हास्य रति और पुरुषवेद के साथ बांधता है, कोई शोक-अरति और पुरुषवेद के साथ बांधता है । कोई हास्य रति और स्त्रीवेद के साथ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy