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________________ पंचसंग्रह : ५ (छ) अतीर्थंकर केवली के छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात, उच्छ् वास, प्रशस्त अथवा अप्रशस्त विहायोगति में से एक, सुस्वर - दुःस्वर में से एक इस प्रकार चार प्रकृतियों को मिलाने से तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह अतीर्थंकर सयोगिकेवली के औदारिककाययोग के समय होता है तथा जब तीर्थंकर केवली वाग्योग का निरोध करते हैं तब उनके स्वर का उदय नहीं होता है, अतः उनके इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान में से एक प्रकृति कम कर देने पर तीर्थंकर केवली के तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ८८ (ज) भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हुए देव के सुस्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत के मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । १० - ( क ) द्वीन्द्रिय जीवों के स्वर सहित तीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत को मिलाने पर इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति का उल्लेख करना चाहिये । उदयस्थान बतलाये हैं । इसका कारण गो. कर्मकाण्ड गा २६७ से ज्ञात होता है कि पांचवें गुणस्थान तक के जीवों के ही उद्योत प्रकृति का उदय होता है तथा उसी की गाथा २८६ से यह भी ज्ञात होता है कि उद्योत का उदय तिर्यंचगति में ही होता है । इसी से आहारक संयतों के २५, २७, २८ और २६ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान बतलाये हैं । इनमें से २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान तो यहाँ बतलाये गये अनुसार जानना चाहिये और २८ प्रकृतिक उदयस्थान उच्छ्वासप्रकृति के उदय से और २६ प्रकृतिक उदयस्थान सुस्वरप्रकृति के उदय से होता है । आणापज्जत्तयस्स उस्सासं ॥ भासापज्जत्तयस्स सुस्रयं ॥ - दि. पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. १७४, १७५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org एवट्ठावीसं एमेऊणत्तीसं Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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