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________________ ४१६ पंचसंग्रह : ५ को उदयावलिका सहित करने पर जितनी स्थिति हो, उतनी सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिसत्ताकहलाती है। इसी प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय के सिवाय शेष अट्ठाईस प्रकृतियों की दो आवलिकान्यून स्वजातीय प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम द्वारा जो आगम होता है, उसको उदयावलिका सहित करने पर जितना प्रमाण हो, उतनी उत्कृष्ट स्थितिसत्ता समझना चाहिए। तथा बंधवालिका और उदयावलिका में कोई भी करण लागू नहीं होने से बंधावलिका के बीतने पर उदयावलिका के ऊपर की आवलिकाद्विक हीन तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बध्यमान सातावेदनीय में संक्रमित होती है, जिससे आवलिकाद्विक न्यून शेष स्थितिस्थान के दलिक सातावेदनीय रूप हो जाते हैं। परन्तु असातावेदनीय के साता रूप होने पर भी असातावेदनीय की सत्ता नष्ट नहीं होती है । किन्तु आवलिकाद्विक न्यून असातावेदनीय के प्रत्येक स्थान में के दलिक योगानुरूप साता में बदल जाते हैं और जिस स्थान में दलिक रहे हुए हैं, वे उसी स्थान में रहते हैं और उनकी निषेकरचना में तो नहीं मात्र स्वरूप में परिवर्तन होता है। जिससे असाता रूप जो फल मिलने वाला था वह साता रूप हो गया। यानि उदयावलिका के ऊपर के असाता के जो दलिक साता में संक्रांत होते हैं वे साता की उदयावलिका के ऊपर संक्रांत होते हैं। इस प्रकार होने से जिस समय असाता की दो आवलिका न्यून उत्कृष्ट स्थिति सातावेदनीय में संक्रमित हुई, उस समय सातावेदनीय की उदयावलिका के ऊपर दो आवलिका हीन तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति हई। उसमें उदयावलिका को मिलाने पर कुल एक आवलिका न्यून तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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