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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०
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देवद्विक अथवा नरकद्विक की जिसने उद्बलना न की हो, किन्तु अब उसके साथ वैक्रियचतुष्क की भी उद्बलना करने पर अस्सी और उसमें से मनुष्यद्विक की उवलना करने पर अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । प्राचीन ग्रन्थों में इन तीन स्थानों की अध्रुव संज्ञा है तथा अयोगि अवस्था के चरम समय में तीर्थंकर भगवान के नौ प्रकृतिक और सामान्य केवली के आठ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
यद्यपि अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान क्षपकश्रेणि में तेरह प्रकृतियों का क्षय करने और अठासी में से वैक्रिय-अष्टक का क्षय करने पर भी होता है । परन्तु दोनों में संख्या समान होने से एक ही गिना है। इसलिये बारह सत्तास्थान हैं ।
इन बारह सत्तास्थानों में दस अवस्थितसत्कर्म हैं। क्योंकि नौ प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक सत्तास्थान एक समय मात्र के होने से वे अवस्थित रूप नहीं हैं ।
अल्पतरसत्कर्मस्थान दस हैं, जो इस प्रकार जानना चाहियेप्रथम सत्तास्थानचतुष्क से द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क में जाने पर चार अल्पतर, दूसरे चतुष्क से अयोगि के चरम समय में नौ और आठ प्रकृतिक सत्तास्थान में जाने पर दो अल्पतर, प्रथम सत्तास्थानचतुष्क में के अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान से छियासी और अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान में जाने पर दो अल्पतर तथा तेरानव और बानव के सत्तास्थान से आहारकचतुष्क की उद्बलना करने पर नवासी और अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में जाने पर दो अल्पतरसत्कर्म होते हैं और ये चार, दो, दो और दो मिलकर कुल ( ४+२+२+२= १०) दस अल्पतर होते हैं ।
अस्सी का अल्पतर नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय करने पर भी होता है और वैक्रियाष्टक का क्षय करने पर भी होता है। किन्तु संख्यातुल्य होने से एक ही गिना है। क्योंकि अवधि-मर्यादा के कारण भेद नहीं गिना जाता है ।
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