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________________ ११८ पंचसंग्रह : ५ भूयस्कारसत्कर्मस्थान छह होते हैं। जो इस प्रकार जानना चाहिए कि अठहत्तर के स्थान से मनुष्यद्विक का बंध करके अस्सी के सत्तास्थान में जाने पर पहला भूयस्कार, वहाँ से नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क अथवा देवद्विक और वैक्रियचतुष्क बांधकर छियासी प्रकृतियों के सत्तास्थान में जाने पर दूसरा भूयस्कार, वहाँ से देवद्विक अथवा नरकद्विक बांधकर अठासी के सत्तास्थान में जाने पर तीसरा भूयस्कार, तीर्थकर नामकर्म का बंध कर के नवासी के सत्तास्थान में जाने पर चौथा भूयस्कार, तीर्थकर के बंध बिना आहारकचतुष्क का बंध करके बानवै प्रकृतिक स्थान में जाने पर पांचवां भूयस्कार और वहाँ से तीर्थंकरनाम का बंध करके तेरानवै के सत्तास्थान में जाने पर छठा भूयस्कार होता है । शेष सत्तास्थानों से अन्य अधिक संख्या वाले सत्तास्थानों में जाना असंभव होने से छह भूयस्कार ही होते हैं तथा नामकर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों की सत्ता नष्ट होने के बाद पुनः उनकी सत्ता संभव नहीं होने से अवक्तव्यसत्तास्थान नहीं होता है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के सत्तास्थान और उनमें भूयस्कार आदि का निर्देश जानना चाहिए। अब सभी उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान एवं उनमें भूयस्कार आदि का कथन करने के लिये सत्तास्थानों को बतलाते हैं। सर्व उत्तर प्रकृतियों के सत्तास्थान, भूयस्कारादि एक्कारबारसासी इगिचउपंचाहिया य चउणउई। एत्तो चोद्दसहिय सयं पणवीसाओ य छायालं ॥२१॥ बत्तीसं नत्थि सयं एवं अडयाल संत ठाणाणि । जोगि अघाइचउक्के भण खिविउं घाइसंताणि ॥२२॥ शब्दार्थ-एक्कार-ग्यारह, बारसासी-बारह, अस्सी, इगिचउपंचाहिया -एक, चार, पांच अधिक, य-और, चउणउई-चौरानवे, एत्तो-इसके बाद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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