________________
बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२
११६
चोद्दमहिय - चौदह अधिक, सयं सौ, पणवीसाओ - पच्चीस, य-और,
छायाल- छियालीस ।
-
बत्तीस-बत्तीस, नत्थि - नहीं है, सयं— सौ अर्थात् एक सौ बत्तीस क स्थान नहीं है, एवं - इस प्रकार, अडयाल - अड़तालीस, संत - सत्ता, ठाणाणिस्थान, जोगि — सयोगिकेवली, अघाइचउक्के - अघातिकमं चतुष्क के स्थानों में भण - कहना चाहिये, खिविडं - प्रक्ष ेप करके, मिलाकर, धाइसंताणि - घातिकर्म के सत्तास्थान |
-
गाथार्थ - ग्यारह, बारह, अस्सी तथा एक, चार और पांच अधिक अस्सी, चोरानव और उसके बाद एक सौ चौदह पर्यन्त सभी, उसके बाद एक सौ पच्चीस से लेकर एक सौ छियालीस तक के सभी किन्तु बीच में एक सौ बत्तीस को छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार कुल अड़तालीस सत्तास्थान होते हैं । सयोगिकेवली के अघातिकर्म के चार सत्तास्थानों में घातिकर्म के सत्तास्थानों को मिलाकर उपर्युक्त सत्तास्थान कहना चाहिए ।
विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में ज्ञानावरण आदि आठों कर्म की समस्त उत्तर प्रकृतियों के सामान्य से सत्तास्थान बतलाये हैं और उनमें भूयस्कार आदि का विचार किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सामान्य से सभी कर्मों की सत्ता योग्य एक सौ अड़तालीस प्रकृतियां हैं । किन्तु प्रत्येक जीव को प्रत्येक समय उन सभी एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती है । परन्तु जीव की योग्यता के अनुसार प्रकृतियां पाई जाती हैं । इसी अपेक्षा सत्तास्थान अड़तालीस हैं और उनमें संकलित प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है
१ ग्यारह, २ बारह, ३ अस्सी, ४ इक्यासी, ५ चौरासी, ६ पचासी, ७ चौरानवे, ८ पंचानवे, ६ छियानवे, १० सत्तानवे, ११ अट्ठानवे, १२ निन्यानवे, १३ सौ, १४ एक सौ एक, १५ एक सौ दो, १६ एक सौ तीन, छह, २० एक सौ
१७ एक सौ चार, १८ एक सौ पांच, १६ एक सौ
Jain International
Use