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पंचसंग्रह : ५ नपुसकवेद और स्त्रीवेद का एक साथ और फिर सात प्रकृतियों का क्षय करता है।
विशेषार्थ-त्रोवेद के उदय में क्षाणि पर आरूढ़ होने वाला पहले नपुसकवेद का क्षय करता है, तत्पश्चा। संख्यात स्थितिखण्डों को उलांघने के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है और तत्पश्चात् पूर्वोक्त काल जाने के बाद हास्यादि षट्क ओर पुरुषवेद इन सात प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है। नपुसकवेद के उदय में क्षपकणि आरम्भ करने वाला स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का एक साथ क्षय करता है और उसके बाद पुरुषवद और हास्यादि षट्क इन सात प्रकृतियों का समकाल में क्षय करता है। जब तक उन-उन प्रकृतियों का क्षय नहीं होता है, वहाँ तक उनकी सत्ता जानना चाहिए। उपशमश्रेणि की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान तक सत्ता है । तथा उसके बादसंखेज्जा ठिइखंडा पुणोवि कोहाइलोभ सुहमत्ते। आसज्ज खवगसेढी सव्वा इयराइ जा सन्तो ॥१४०॥
शब्दार्थ-संखेज्जा-संख्यात, ठिइखंडा-स्थितिखंडों, पुणोवि-पुनः, कोहाइ-क्रोधादि, लोभ-लोभ, सहुमत्तै-सूक्ष्मसंपरायत्व में, आसज्ज-अपेक्षा से, ख्वगसेढी-क्षपकणि , सव्वा-सब, इयराइ-इतर उपशमश्रेणि में, जा-पर्यन्त तक, सन्तो-उपशांतमोहगुणस्थान ।
गाथार्थ-संख्याता स्थितिखंडों को उलांघने के बाद पुनः क्रोधादि का क्षय होता है और लोभ का सूक्ष्मसंपरायत्व में क्षय होता है । यह कथन क्षपकणि की अपेक्षा है। किन्तु इतर-उपशम श्रेणि में तो सब प्रकृतियों की सत्ता उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त होती है। विशेषार्थ-पुरुषवेद का क्षय होने के अनन्तर संख्याता स्थितिखण्डों का अतिक्रमण करने के बाद संज्वलन क्रोध का नाश होता है, उसके बाद संख्याता स्थितिखण्डों के व्यतीत होने पर संज्वलन मान
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