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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४१ ४०५ का, उसके बाद इसी प्रकार संख्याता स्थितिखण्ड जाने पर संज्वलन माया का क्षय होता है और संज्वलन लोभ का क्षय सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम सयय में होता है। पूर्वोक्त मध्यमकषायाष्टक से लेकर संज्वलन लोभ पर्यन्त सभी प्रकृतियों का क्षय क्षपकश्रोणि की अपेक्षा से जानना चाहिए। अतएव जहाँ तक क्षय न हो, वहाँ तक उन प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए और उसके बाद के गुणस्थानों में नहीं होती है। किन्तु क्षपकश्रोणि से इतर यानि उपशमश्रेणि में तो उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त सत्ता होती है.---'सव्वा इयराइ जा सन्तो'। अब कुछ एक विशिष्ट प्रकृतियों की सत्ता के सम्भव गुणस्थानों को बतलाते हैं। आहारकसप्तक और तीर्थकरनाम के सत्ता-गुणस्थान सव्वाणवि आहारं सासणमीसेयराण पुण तित्थं । उभये संति न मिच्छे तित्थगरे अन्तरमहत्तं ॥१४१॥ शब्दार्थ-सव्वाणवि-सभी गुणस्थानों में, आहार-आहारकसप्तक, सासणमीसेयराण-सासादन और मिश्र से अन्य, पुण -पुनः, तित्थं-तीर्थंकरनाम, उभये - दोनों, संति-होते हैं, न-नहीं, मिच्छे -मिथ्यात्वगुणस्थान में, तित्थगरे-तीर्थकर, अन्तरमुत्तं-अन्तमुहूर्त पर्यन्त । गाथार्थ-सभी गुणस्थानों में आहारकसप्तक की विकल्प से तथा सासादन और मिश्र के सिवाय अन्य गुणस्थानों में तीर्थकरनाम की (भजना से) सत्ता होती है। दोनों की सत्ता हो तो मिथ्यादृष्टि नहीं होता है । तीर्थकर की सत्ता होने पर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही मिथ्या दृष्टि होता है। विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त के सभी जीवों के आहारकसप्तक की सत्ता विकल्प से होती है। अर्थात् कदाचित् होतो है और कदाचित् नहीं भी होती है। इसका कारण यह कि सातवें और आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक में आहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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