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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३०
१४५ में बंधयोग्य हैं और जिनके बंध के स्वामी पंचेन्द्रिय तिर्यंच है तथा इन एक सौ सत्रह प्रकृतियों में से भी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव नरकत्रिक, देवत्रिक और वैक्रियद्विक इन आठ प्रकृतियों के भी बंधक नहीं होते हैं, अतः इन आठ को एक सौ सत्रह में से कम करने पर एक सौ नौ प्रकृतियों के बंध के स्वामी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव होते हैं तथा गतित्रस-तेजस्काय और वायुकाय के जीव इन एक सौ नौ प्रकृतियों में से भी मनुष्यत्रिक-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु तथा उच्चगोत्र इन चार प्रकृतियों के बंधक नहीं होते हैं। अतएव एक सौ नौ में से इन चार को भी कम करने पर कुल एक सौ पांच प्रकृतियों के बंध के अधिकारी हैं।1
इस प्रकार से तिर्यंचगति में बंध के योग्य व अयोग्य प्रकृतियों को जानना चाहिये। अब देव और नारकों की अपेक्षा बंध के अयोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं। -देव और नारक के बंध-अयोग्य प्रकृतियां
वेउव्वाहारदुगं नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं । बंधहि न सुरा सायवथावरएगिदि नेरइया ॥३०॥
१ दिगम्बर कर्मसाहिता का भी तिर्यच गति में बंध-अयोग्य प्रकृतियों के लिए
यही अभिमत है-देखिये दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ३३३, ३३७, ३३८, ३३६, ३५६, ३५८, ३५६ । लेकिन तत्संबन्धी विशेषता इस प्रकार है
१-सामान्य से तिर्यंचगति बंधप्रयोग्य ११७ प्रकृति हैं।
२-पंचेन्द्रिय तिर्यंच के पर्याप्त, अपर्याप्त यह दो भेद किये हैं । उनमें से पर्याप्त के ११७ और अपर्याप्त के एकेन्द्रिय, विकलत्रिक के समान १०६ प्रकृतियां बंधयोग्य है। फिर पर्याप्त में पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी रूप एक भेद और करके उसमें भी बंधयोग्य ११७ प्रकृतियां बताई हैं।
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