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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२ १५१ भोग के लिये हुई व्यवस्थित दलिकरचना को निषेकरचना कहते हैं । अबाधाकाल में दलिक व्यवस्थित क्रम से जमाये हुए नहीं होने से उतने काल पर्यन्त विवक्षित समय में बंधे हुए कर्म का फलानुभव नहीं होता है । उतना काल बीतने के बाद अनुभव होता है। इस प्रकार आयु को छोड़कर शेष कर्मों के लिये जानना चाहिए। यथा-नाम और गोत्र कर्म की बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है तो दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन कर्मदलिकों की निषेकरचना का काल है तथा इतर चार कर्मों की तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है, तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। आयुकर्म की पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है, पूर्वकोटि का तीसरा भाग आबाधाकाल है और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है। इस प्रकार से मूलकों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये । अब उनकी जघन्य स्थिति का प्रमाण बतलाते हैं। मूलकर्म प्रकृतियों को जघन्यस्थिति मोत्त मकसाइ तणुया ठिइ वेयणियस्स बारस मुहुत्ता। अट्ठट्ठ नामगोयाण सेसयाणं मुहुत्त तो ॥३२॥ - १ आयुकम की उत्कृष्ट स्थिति विषयक कथन का आशय यह है कि आयुकर्म की जो भी स्थिति बंधती है, वह सभी निषेककाल है। अर्थात् उतनी स्थिति प्रमाण उसके निषेकों की रचना (विपाकोदयरूपता) होती है। आयुकर्म की उत्कृष्ट अवाधा पूर्व कोटि वर्ष का त्रिभाग बताया है, वह भुज्यमान आयु की अपेक्षा समझाना चाहिए, बध्यमान आयु की अपेक्षा नहीं। यह कथन पूर्वकोटिप्रमाण कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों की भुज्यमान आयु के त्रिभाग रूप अबाधाकाल को सम्मिलित करके कहा गया समझना चाहिए। आयुकर्म के अबाधाकाल सम्बन्धी चार विकल्प हैं, जिनका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग आगे किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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