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________________ १५० पंचसंग्रह : ५ की जितने कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति का बंध हो, उसका उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। इस बात को बताने के लिये इसी प्रकरण में आगे कहा जा रहा है-एवइया बाह वाससया' अर्थात् जिस कर्म की जितनी कोडाकोडी प्रमाण स्थिति का बंध हो, उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। जैसे कि मोहनीयकर्म को उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बंधने पर उसका सत्तर सौ (सात हजार) वर्ष का अबाधाकाल है । अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति से बांधा गया मोहनीयकम सात हजार वर्ष पर्यन्त अपने उदय द्वारा जीव को कुछ भी बाधा उत्पन्न नहीं करता है, तत्पश्चात ही बाधा उत्पन्न करता है, यानी अपना विपाकवेदन कराता है। इसका कारण यह है कि सात हजार वर्ष के जितने समय होते हैं, उसमें आत्मा तथास्वभाव से दलिकरचना नहीं करती है। उसके बाद के समय से लेकर सात हजार वर्ष न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम काल पर्यन्त फलानुभव करती है। उक्त कथन का सारांश यह है कि जिस समय जो कर्म बंधे, उसके भाग में जो दलिक आते हैं, उनको क्रमशः भोगने के लिए व्यवस्थित रचना होती है। जिस समय कर्म बंधा, उस समय से लेकर कितने ही समय में रचना नहीं होती है, परन्तु उससे ऊपर के समय में होती है। जितने समयों में रचना नहीं होती है उसे अबाधाकाल कहते हैं। अबाधाकाल यानि दलिकरचना रहित काल । बंध समय से लेकर अमुक समयों में दलरचना नहीं होने में जीवस्वभाव कारण है। अबाधाकाल के ऊपर के समय से लेकर अमुक समय में इतने दलिक फल देंगे, इस प्रकार स्थिति के चरम समय पर्यन्त क्रमबद्ध रूप से निश्चित रचना होती है । जिस-जिस समय में जिस-जिस क्रमानुसार प्रमाण में रचना हुई हो, उस-उस समय के प्राप्त होने पर उतने-उतने दलिकों का फल भोग होता है। इसी कारण अबाधाकाल जाने के बाद एक साथ सभी दलिक फल नहीं देते हैं, किन्तु रचनानुसार फल देते हैं । जितने स्थानों में रचना नहीं हुई है, उसे अबाधाकाल और फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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