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पंचसंग्रह : ५
गो. कर्मकांड में पंचसंग्रह के अनुरूप ही प्रत्येक प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर जघन्य स्थिति का प्रमाण निकाला है । इस प्रकार जहाँ तक प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने का सम्बन्ध है, वहाँ तक गो. कर्मकाण्ड एवं पंचसंग्रह के मत में समानता है कि प्रकृतियों के वर्ग न बनाकर प्रत्येक प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देना चाहिए । लेकिन आगे जाकर वह कर्मप्रकृति के मत से सहमत हो जाता है कि मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का उस-उसे प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो लब्ध आता है वही उस प्रकृति की एकेन्दिय की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर जघन्य स्थिति होती है ।
किन्तु पंचसंग्रह के मत से भिन्नता है । क्योंकि पंचसंग्रह के मतानुसार प्रत्येक प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, वह एकेन्द्रिय की अपेक्षा जघन्य स्थिति है, उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग जोड़ने पर उसकी उत्कृष्ट स्थिति होती है ।
इस प्रकार से दोनों परम्पराओं के अजघन्य स्थितिबंध सम्बन्धी मत जानना चाहिये । श्वेताम्बर साहित्य में इस विषयक मत इस प्रकार हैं
कर्म प्रकृतिकार आचार्य शिवशर्मसूरि जिस प्रकार से निद्रा आदि पचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का कथन करते हैं, वह स्पष्ट है । इसके लिये उन्होंने जो गाथा दी है, वह इस प्रकार है -
वग्गुक्कोस ठिईणं मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्ध । सेसाणं तु जहन्ना पल्लासंखिज्ज भागूणा ॥ १,
अर्थात् अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, उसमें पल्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर शेष (८५) प्रकृतियों की जघन्य स्थिति होती है । एकेन्द्रिय उतनी जघन्य स्थिति बांधते हैं और उनके उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये संकेत किया हैएसेगिंदय डहरो सव्वासि ऊण संजुओ जेट्ठो ।
बंधनकरण गाथा ७६
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