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________________ परिशिष्ट ८ ८ कर्म प्रकतियों की जघन्य स्थितिबंध विषयक मतभिन्नतायें कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के बंध के विषय में दोनों जैन परम्पराओं के कर्मसाहित्य में मतभिन्नता नहीं है। उत्कृष्ट अबाधाकाल के लिये भी भिन्नता नहीं है। केवल एक बात उल्लेखनीय है कि जैसे आचार्य शिवशर्मसूरि ने कम्पपयडी (कर्मप्रकृति) में वर्णचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर बताई है, उसी प्रकार गो. कर्मकाण्ड (दि. कर्मग्रन्थ) में भी बताई है।' पंचसंग्रहकार की तरह उनके अवान्तर भेदों की दस कोडाकोडी सागर से लेकर बीस कोडाकोडी सागर तक की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बताई है । लेकिन जिन प्रकृतियों की नामनिर्देश पूर्वक पृथक्-पृथक् जघन्य स्थिति बताई है, उनके अतिरिक्त शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के सम्बन्ध में मतभिन्नता है। ऐसी प्रकृतियां पचासी हैं। उनके जघन्य स्थिति बंधक और बंध के बारे में इतना संकेत किया है सेसाणं पज्जते बादर एइंदियो विसुद्धो य । बंधदि सव्वजहण्णं सगसग उक्कस्सपडिभागे ।।१४३।। अर्थात् शेष (८५) प्रकृतियों की जघन्य स्थितियों को बादर पर्याप्तक विशुद्ध परिणाम वाला एकेन्द्रिय जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति के प्रतिभाग में बांधता है और फिर उक्त प्रकृतियों की एकेन्द्रियदिक जीवों को अपेक्षा से जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति बताने के लिये लिखा है कि पूर्वोक्त उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर प्राप्त भाग एकेन्द्रिय के योग्य उत्कृष्ट स्थिति और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग न्यून करने पर जघन्य स्थति हो जाती है । इसीलिये गो. कर्मकांड में शेष पचासी प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अलग से नहीं बताया है। । गो. कर्मकांड गाथा १२८-१३३ । २ गो. कर्मकांड गाथा १४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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