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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा &
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विशेषार्थ गाथा में बंध के प्रकारों-भेदों का निर्देश करते हुए उनके अधिकारी जीवों को बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पूर्व में ध्रुवबंध, उदय तथा अध्रुवबंध, उदय की अपेक्षा जो प्रकृतियों का वर्गीकरण किया गया है, उस चर्चा में यह जानने की सहज ही उत्सुकता हो जाती है कि कर्मबंध की कितनी दशाएँ होती हैं ? इसी उत्सुकता का निराकरण इस गाथा में किया गया है ।
बंध के मूल में दो प्रकार हैं- अनादि - अनन्त और प्रतिपक्षी सादिसांत । अब यदि इनके सांयोगिक भंग बनाये जायें तो चार भंग - विकल्प होंगे - १ अनादि-अनन्त, २ अनादि- सान्त, ३ - सादि-अनन्त और ४ सादि- सान्त | जिस बंध की परम्परा अनादि काल से निरन्तर बिना किसी रुकावट के चली आ रही हो और मध्य में न कभी विच्छिन्न हुई और न कभी आगे होगी, ऐसी बंध परम्परा को अनादि-अनन्त कहते हैं । जिस बंध की परम्परा अनादि काल से अप्रतिहत प्रवाह रूप में चली आ रही हो, किंतु आगे व्युच्छिन्न हो जायेगी, वह अनादि- सांत है । जिस बंध की परम्परा की आदि होकर अनन्त काल तक चलती रहे, उसे सादि - अनन्त कहते हैं और जिस बंध की परम्परा आदि सहित होकर कालान्तर में नष्ट हो जाने वाली हो, उसे सादि-सांत समझना चाहिए ।
इन चार भंगों के होने पर भी सादि - अनन्त भंग किसी भी बंध या उदय प्रकृति में घटित नहीं होता है। क्योंकि जो बंध या उदय सादि हो वह कभी अनन्त नहीं हो सकता है । इसीलिए ग्रन्थकार आचार्य ने यहाँ बंध के तीन प्रकारों को ग्रहण किया है- १ अनादि-अनन्त, २ अनादि- सान्त और ३ सादि - सान्त |
इन तीनों प्रकारों में अभव्य जीवों के सांपरायिक -संसार के कारणभूत कर्म का बंध अनादि-अनन्त है । क्योंकि उनको भूतकाल से सर्वदा बंध होता चला आ रहा है, जिससे अनादि है और भविष्य में किसी
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