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________________ २८ पंचसंग्रह : ५ तियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय नहीं है। इसका आशय यह हुआ कि शेष इक्यासी प्रकृतियों का जहां तक उदय हो वहां तक उदीरणा भी होती है किन्तु किसी भी समय उदीरणा से विहीन केवल उदय नहीं होता है, दोनों का क्रम साथ चलता है और साथ ही रुकता है। इस प्रकार विस्तार से उदीरणा विधि समझना चाहिए । अब बंध, उदय, सत्ता और उदीरणा विधियों का निर्देश करने के बाद बंध का विस्तार से विवेचन करने के लिए पहले बंध के प्रकारों को बतलाते हैं। बंध के प्रकार होइ अणाइअणन्तो अणाइसंतो य साइसन्तो य । बंधो अभव्व भव्वोवसन्तजीवेसु इइ तिविहो ॥६॥ शब्दार्थ-होइ--होता है. अणाइअणन्तो-अनादि-अनन्त, अणाइसन्तोअनादि-सान्त, य - और, साइसन्तो-सादि-सान्त, य-तथा, बंधो- बंध, अभध्व-अभव्य, भब्दोवसन्त-भव्य, उपशान्तमोह, जीवेसु-जीवों में इइ---- इस तरह, तिविहो-तीन प्रकार ।। गाथार्थ-अभव्य, भव्य और उपशांतमोहगुणस्थान से पतित हुए जीवों में अनुक्रम से अनादि-अनन्त, अनादि-सांत और सादिसान्त बंध होता है। इस तरह बंध के तीन प्रकार हैं। दिगम्बर कर्म साहित्य का भी इकतालीस प्रकृतियों की भजनीय उदीरणा के सम्बन्ध में यही मंतव्य है । अन्तर इतना है कि यहां उदय-योग्य १२२ की अपेक्षा उदय एव भजनीय उदीरणा के योग्य इकतालीस प्रकृतियों का उल्लेख किया है, जब कि दिगम्बर साहित्य में समस्त एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों को लेकर उदीरणा, अनुदीरणा, उदीरणाविच्छेद का विचार किया है, किन्तु इकतालीस प्रकृतियों के नाम समान हैं। विस्तार से इसका विवरण परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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