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________________ बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६ इस प्रकार से सैंतालीस ध्र वोदया प्रकृतियों के अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदयों का विचार करने के बाद उनसे शेष रही मिथ्यात्व प्रकृति के अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय के भंगों को बलताते हैं- मिथ्यात्व का अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है-'चउहा मिच्छत्त' । जो इस प्रकार से जानना चाहिए कि प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए जिसने अन्त रकरण किया है, ऐसा क्षपितकर्माश कोई जीव उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व में जाये और उस समय अन्तरकरण का कुछ अधिक आवलिका काल शेष रहे तब अन्तिम आवलिका में जो गोपुच्छाकार दल रचना होती है, उसके चरम समय में रहते जघन्य प्रदेशोदय होता है। उसको एक समय मात्र का होने से सादि है। उसके सिवाय अन्य समस्त प्रदेशोदय अजधन्य है । वह जघन्य से दूसरे समय में प्रारम्भ होने से सादि है। अथवा वेदकसम्यक्त्व से गिरते समय भी अजघन्य प्रदेशोदय के प्रारम्भ होने से सादि है। उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि तथा भव्याभव्य की अपेक्षा क्रमशः अध्र व, ध्र व जानना चाहिए। तथा देशविरति गुणश्रेणि में वर्तमान कोई गुणितकर्माश जीव सर्वविरति प्राप्त करे यानी उसके निमित्त गुणश्रेणि करे और उसको करके वहाँ तक जाये यावर दोनों गुणश्रेणियों का शिरोभाग प्राप्त हो और वहाँ से गिरकर मिथ्यात्व में जाये तो उसे उन दोनों गुण१ जिस समय देशविरति प्राप्त करे तब से अन्तमुहूर्त पर्यन्त आत्मा प्रवर्धमान परिणाम वाली रहती है । यानि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रवर्धमान गुणश्रेणि करती है । अब वह देश विरति की गुणश्रेणि में रहते सर्वविरति प्राप्त करे और तन्निमित्तक गुणश्रेणि करे । सर्वविरति प्राप्त करके भी अन्तमुहूर्त पर्यन्त अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाली ही रहती है और विकासोन्मुखी गुणश्रेणि करती है । उन दोनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग पर जिस समय पहुंचने वाली हो, उसके पूर्व गिरकर मिथ्यात्व में जाये, वहाँ उस शिरोभाग का अनुभव करते मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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