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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११३ कषाय जीव, देव-देवत्व, अत्ति-शीघ्र, गो-प्राप्त, उब्वियसुरदुग -वैक्रियद्विक और देवद्विक का, स एव-वही।
गाथार्य-प्रथम गुणश्रोणि के शीर्ष पर वर्तमान उपशांतकषाय जीव निद्रा और प्रचला का तथा शीघ्र देवत्व को प्राप्त हुआ वही जीव वैक्रियद्विक और देवद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है।
विशेषार्थ -'पढमगुणसेढिसीसे' अर्थात् अपनी प्रथम गुणोणिशीर्षशिरोभाग पर वर्तमान गुणितकर्मांश उपशांतकषाय जीव निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करता है तथा 'स एव' अर्या । वही, यानी अपनी प्रथम गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्मांश उपशांतकषाय जिस समय अपनी प्रथम श्रेणि के शिरोभाग को प्राप्त करेगा, उसके पश्चाद्वर्ती समय में कालधर्म प्राप्त कर देवरूप से उत्पन्न हो ऐसा वह वैक्रियसप्तक और देवद्विक रूप नौ प्रकृतियों का स्कृष्ट प्रदेशोदय करता है। तथा
तिरिएगंतुदयाणं मिच्छ्त्तण मीसथीणगिद्धीणं ।
अप्पज्जत्तस्स य जोगे दुतिगुणसेढोण सीसाणं ॥११३॥ शब्दार्थ-तिरिएगंतुदयाणं-एकान्त तियंव-उदयप्रायोग्य का, मिच्छत्तगमोसयोणगिद्धोणं-मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, मित्र और स्त्यानद्वित्रिक का, अप्पम्बसस्स-अपर्याप्त का, य-और, जोगे-पोग में, दुतिगुणसेढीण सोसाणं -दूसरी और तीसरी गुणश्रेणि के शीर्षभाग में।
गाथार्थ -एकान्त तियं व-उदयप्रायोग्य प्रकृतियों का तया मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, मिश्र, स्त्यानद्धित्रिक और अपर्याप्त नामकर्म का दूसरी और तीसरी गुणश्रेण के योग में शिरोभाग पर वर्तमान जीव के उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ-जिन कर्मप्रकृतियों का एकान्त रूप से यानि निश्चित रूप से तियं वाति में उदय होता है, ऐसी एकेन्द्रिय, दोन्द्रिय, पोन्द्रिय,
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