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पंचसंग्रह : ५
चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण नामकर्म तथा मिथ्यात्वमोहनीय, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिश्रमोहनीय, स्त्यानद्धित्रिकनिद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्याद्धि और अपर्याप्त रूप सत्रह प्रकृतियों का उन-उन प्रकृतियों का उदय रहते उत्कृष्ट प्रदेशोदय दूसरी
और तीसरी गुणश्रोणि के शिरोभाग का योग होने के समय वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव के होता है। इसका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है
किसी एक जीव ने देशविरति प्राप्त करके देशविरति के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि की और तत्पश्चात् संयम प्राप्त कर संयम के निमित्त से होने वाली गुणश्रेणि करने के बाद वह जीव सम्यक्त्वादि गुणों से गिरकर मिथ्यात्व में गया और वहाँ अप्रशस्त मरण द्वारा मरण करके तिर्यंच में उत्पन्न हुआ। तब उस गुणितकर्माश तिर्यंच के जिस समय देशविरति और सर्वविरति के निमित्त से हुई उन दोनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग का योग हो-दोनों एकत्रित हों उस समय तिर्यंचगति में एकान्तरूप से उदय होने वाली पूर्वोक्त सात प्रकृतियों तथा अपर्याप्तनामकर्म का यथायोग्य रीति से उस-उस प्रकृति का उदय होने पर उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा मिथ्यात्व और अनन्तानबंधी के सम्बन्ध में मरण प्राप्त करके भी जब देशविरति और सर्वविरति को गुणश्रेणि के शिरोभाग का योग हो, उस काल में कोई गणितकर्मांश जीव मिथ्यात्व प्राप्त करे तब उसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिकषायों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।
इसी प्रकार गुणश्रेणि के शिरोभाग पर वर्तमान कोई मिश्रगुणस्थान प्राप्त करे तो उसे मिश्रमोहनीय का तथा मिथ्यात्व में जाये या न जाये किन्तु गुणश्रेणिशीर्ष पर वर्तमान गुणितकर्मांश जीव के स्त्यानद्धित्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । इसका कारण यह है कि स्त्यानद्धित्रिक का प्रमत्तसंयत पर्यन्त उदय होता है। इसी से दोनों गुणश्रोणि के शीर्ष पर वर्तमान प्रमत्त होता है और उसे स्त्याद्धित्रिक में से किसी भी निद्रा का उदय हो तो उसे भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय हो
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