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________________ ३८६ पंचसंग्रह : ५ इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों के सादि आदि भंगों को जानना चाहिये । अब इन सत्ता प्रकृतियों के स्वामित्व का विचार करते हैं कि किस कर्म प्रकृति की सत्ता का कौन स्वामी है । स्वामित्व विचार के दो भंग हैं - एक - एक प्रकृति की सत्ता का स्वामी कौन है ? और अनेक प्रकृतियों के समूह की सत्ता का स्वामी कौन है ? इनमें से पहले एकएक प्रकृति की सत्ता के स्वामित्व का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । ' एक-एक प्रकृतिविषयक सत्तास्वामित्व दुचरिमखीणभवन्ता निद्दादुग चोद्दसाऊणि ॥ १३३॥ शब्दार्थ - बुचरिम - द्विचरम और चरम समय, खीण-- क्षीणमोहगुणस्थान, भवन्ता - मव के अंत पर्यन्त निद्दादुग-निद्राद्विक, चोहसाऊणिचौदह प्रकृतियों और आयुचतुष्क की । 1 गाथार्थ - क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम और चरम समय एवं भव के अंत पर्यन्त क्रमशः निद्राद्विक, ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों और आयुचतुष्क की सत्ता है । विशेषार्थ- सत्तास्वामित्व का विचार करने के संदर्भ में यह जानना चाहिए कि जिस गुणस्थान तक जिन प्रकृतियों की सत्ता का निर्देश किया जाए, उनकी सत्ता के स्वामी पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर उस गुणस्थान तक के सभी जीवों को समझना चाहिए। अब इस नियम के अनुसार सत्तास्वामित्व का विचार प्रारम्भ करते हैं गाथागत दुरिम आदि पदों का सम्बन्ध अनुक्रम से इस प्रकार करना चाहिए कि क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम - उपान्त्य समयपर्यन्त निद्राद्विक - निद्रा और प्रचला - की सत्ता होती है । इसके बाद उनकी सत्ता नहीं है । इसका आशय यह हुआ कि मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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