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पंचसंग्रह : ५ स्थानों का समूह रूप एक स्पर्धक संज्वलन लोभ और यशःकीति इन दो प्रकृतियों में उपशमश्रोणि नहीं करने वाले को होता है।
पूर्व में यशःकीर्ति के अयोगिकेवलीगुणस्थान में जो एक अधिक समय प्रमाण स्पर्धक कहे हैं, उनमें इस रीति से एक स्पर्धक अधिक होता है।
यहाँ त्रस के भवों में श्रेणि करने के सिवाय ऐसा जो कहा है, उसका कारण यह है कि यदि उपशमश्रेणि करे तो अन्य प्रकृतियों के प्रभूत दलिक गुणसंक्रम द्वारा उक्त दो प्रकृतियों में संक्रमित हों और उससे जघन्य प्रदेशसत्कर्म घटित नहीं हो सकता है। इसलिये श्रेणि नहीं करने वाले के होता है, यह कहा है।
अब उद्वलनयोग्य एवं हास्यषट्क प्रकृतियों के स्पर्धकों को बतलाते हैंअणुदयतुल्लं उव्वलणिगाण जाणिज्ज दीहउव्वलणे । हासाईणं एगं संछोभे फड्डगं चरमं ॥१८०॥
शब्दार्थ-अणुदयतुल्लं-- अनुदयवती प्रकृतियों के तुल्य, उव्वलणिगाणउद्वलन योग्य प्रकृतियों के, जाणिज्ज-जानो, दोह उव्वलणे-चिरोद्वलना करने पर, हासाईणं -हास्यादि प्रकृतियों का, एग--एक, संछोमे-संक्षोभप्रक्षेप, संक्रमण से, फड्डगं-स्पर्धक, चरम-चरम, अन्तिम ।
गाथार्थ-उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के स्पर्धक उनकी चिरोद्वलना करने पर अनुदयवती प्रकृतियों के तुल्य जानो और हास्यादि प्रकृतियों का चरम प्रक्षेप से आरम्भ कर एक स्पर्धक होता है।
विशेषार्थ-गाथा में पहले उद्वलनयोग्य प्रकृतियों के स्पर्धकों का निर्देश करते हुए बताया है कि 'अणुदयतुल्लं जाणिज्ज' अर्थात् अनु
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